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श्री उपदेश माला गाथा १५६-१६२
स्त्री संसर्ग से हानि
शब्दार्थ - निरंकुश एकाकी साधु आहार- पानी आदि की गवेषणा करने में (लज्जावश) पीड़ा पाता है; हमेशा अंगनाओं से घिरे जाने का भय बना रहता है। गुरुकुल-वास में रहने से साधु मन से भी अकार्य नहीं कर सकता, शरीर से उसमें प्रवृत्त होना तो बहुत ही दूर है। गुरुकुलवास में रहने से बहुत लाभ है। इसीलिए स्थविरकल्पी मुनियों को निरंकुश होकर एकाकी विहार करना उचित नहीं है । । १५८ ।। उच्चार- पासवण-यंत- पित्त - मुच्छाड़, मोहिओ इक्को सद्दयभाणविहत्थो, निक्खिवड़ व कुणड़ उड्डाहं ॥१५९॥
शब्दार्थ - टट्टी, पेशाब, उलटी, पित्त और मूर्च्छा (बेहोशी), वायुविकार, विसूचिका (पेचिश) आदि बिमारियों के प्रकोप के समय अकेला साधु मार्ग में चलताचलता कांपते हुए हाथ आदि से जल से भरे पात्र को नीचे रख देता है तो इससे संयम की विराधना आत्म विराधना होती है और यदि वह हाथ से पात्र रखकर बड़ी नीति आदि करता है तो जिन शासन की बदनामी होती है। इसीलिए बिना कारण के स्वच्छन्दता पूर्वक अकेला रहना किसी तरह भी ठीक नहीं है ।। १५९ ।।
एकदिवसेण बहुया, सुहा य असुहा य जीव परिणामा । इक्को असुहपरिणओ, चइज्ज आलंबणं लद्धुं ॥१६०॥ शब्दार्थ - एक ही दिन में जीव के कई बार शुभ या अशुभ परिणाम होते हैं। साधु एकाकी होने पर कदाचित् अशुभ परिणाम आ जाय तो किसी भी झूठे आलंबन - निमित्त को लेकर चारित्र को छोड़ देगा या अनेक दोष लगायेगा। उस समय उसे कौन शुद्ध (सही) रास्ता बतायेगा ? ।।१६०।
सव्वजिणप्पडिकुट्ठ, अणवत्था थेरकप्पभेओ य ।
एक्को य सुआउत्तो वि हणइ तवसंजमं अइरा ॥ १६१ ॥
शब्दार्थ - ऐसे अनेक कारणों से सभी जिनवरों ने एकाकी रहने का निषेध किया है। साथ ही एक के एकाकी रहने लगने पर दूसरे अनेक मुनि भी उसकी देखादेखी एकाकी रहने लगते हैं। स्थविरकल्प का जो आचार है, उसमें इस प्रकार की विभिन्नता देखकर लोगों को इसमें शंका व अश्रद्धा पैदा होती है। एकाकी साधु अगर अप्रमत्त रूप से साध्वाचार का पालन करता हो, फिर भी किसी अशुभ निमित्त के मिलने पर वह जल्दी ही तप-संयम का घात कर देता है; यानी उसमें दोष लगाता है। इसीलिए एकाकी रहना अयुक्त है ।। १६१ ।।
वेसं जुण्णकुमारीं, पउत्थवइयं च बालविहवं च । पासंडरोहमसइं, नवतरुणीं थेरभज्जं च ॥ १६२॥
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