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श्री उपदेश माला गाथा १३७
दृढ़प्रहारी मुनि की कथा आने-जाने वाले लोगों ने दृढ़प्रहारी को देखा तो एकदम उनकी त्यौरियां चढ़ गयी
और वे एक दूसरे से कहने लगे- "यही है वह महादुष्ट हत्यारा; अब इसने साधु बनने का ढोंग किया है। ठहर जा दुष्ट, अभी तुझे मजा चखाते हैं। यों कहकर कोई उन्हें मुक्कों से, कोई लातों से, कोई लाठियों से तो कोई ईंट-पत्थरों से मारनेपीटने लगे; कोई अंटसंट गालियां देने लगे, 'इस दुष्ट का सत्यानाश हो जाय!' इस प्रकार कोई उसे कोसने लगे; कोई दुर्वचन कहकर उसका अपमान करने लगे। परंतु दृढ़प्रहारी ने उन प्रहारकर्ताओं पर जरा भी रोष या द्वेष नहीं किया। वे समभाव पूर्वक उस यातना को सहते रहे। जब लोगों के द्वारा फेंके हुए पत्थरों और ईंटों का ढेर गले तक आ गया और उनका श्वास रुकने लगा तो उन्होंने कायोत्सर्ग पारित करके वहाँ से चलकर दूसरे दरवाजे पर आकर कायोत्सर्ग (ध्यान) लगा दिया। परंतु वहाँ भी यही हालत हुई। मगर उन्होंने पहले की तरह यहाँ भी परिषह सहन किये वहाँ से क्रमश: तीसरे और चौथे दरवाजे पहुँचे; लेकिन वहाँ भी उन पर गाली, मारपीट और प्रहार आदि कष्ट आते उन्हें वे समतापूर्वक सहते और चारों ही प्रकार के आहारों का प्रत्याख्यान (त्याग) कर लिया करते। यों करते-करते निराहारी मुनि दृढ़प्रहारी को ६ महीने हो गये, मगर वे अपने नियम से जरा भी विचलित न हुए। विशुद्ध ध्यान और भावना (अनुप्रेक्षा) के कारण उनका अन्तःकरण क्षमा से निर्मल हो गया। अतः चार घाती कर्मों का क्षय होने से उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ। उसके पश्चात् अनेक जीवों को प्रतिबोध देकर केवली दृढ़प्रहारी मुनि मोक्ष पधारें।
___ इसी प्रकार जो आत्मार्थी साधक आक्रोश, वध आदि अनेक परिषहों को समभाव पूर्वक सहते हैं, वे अनंतसुखों से युक्त मोक्ष को प्राप्त करते हैं, यही इस कथा का मुख्य उपदेश है ।।१३६।।
अहमाहओ ति न य पडिहणंति, सत्ताऽवि न य पडिसति ।
मारिजंताऽवि जई, सहति सहस्समल्लु व्च ॥१३७॥
शब्दार्थ - इस व्यक्ति ने मुझे मारा-पीटा है, ऐसा जानते हुए भी सुविहित साधु उसे मारते-पीटते नहीं, किसी ने उन्हें शाप दिया है, तो भी वे बदले में उसे शाप नहीं देते। बल्कि किसी के द्वारा मारने पीटने पर भी वे समभाव से उसे सहते हैं। जैसे सहस्रमल्ल मुनि ने प्रहार आदि सहन किये थे, वैसे ही अन्य साधकों को सहने चाहिए ।।१३७।।
प्रसंगवश यहाँ सहस्रमल्ल मुनि की कथा दी जा रही है
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