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समभावी सहस्र मुनि की कथा
श्री उपदेश माला गाथा १३७ सहसमल्ल मुनि की कथा . शंखपुर में कनकध्वज राजा राज्य करता था। उसकी राजसभा में वीरसेन नाम का एक सुभट राजसेवा करता था। एक बार राजा उसकी राजभक्ति और सेवा से प्रसन्न होकर उसे ५०० गाँव इनाम देने लगा; फिर भी उसने लेने से साफ इन्कार कर दिया और कहा–'राजन्! मुझे तो आपकी सेवा बिना वेतन लिये ही करनी है। आपकी कृपादृष्टि और प्रसन्नता ही मेरे लिये बहुत है।'
इस प्रकार वीरसेन निःस्वार्थ भाव से राजा की सेवा करता रहता था। उन्हीं दिनों राजा के एक कट्टर शत्रु दुर्जन कालसेन ने बड़ा उपद्रव मचा रखा था। आसपास का कोई गाँव और शहर न छोड़ा, जहाँ आतंक न मचाया हो। वह किसी के काबू में नहीं आता था। इसके मारे राजा चिन्तित और परेशान था। एक दिन राजा ने अपनी सभा में बैठे हुए सभासदों से कहा-"कौन ऐसा बलवान है, जो कालसेन को जीता पकड़कर मेरे पास ला सके!" राजा की बात सुनते ही सबके सब चुप हो गये। जब कोई भी न बोला तब वीरसेन ने खड़े होकर कहा"स्वामिन्! आप दूसरे को क्यों कह रहे हैं? मुझे आज्ञा दीजिए, मैं फौरन अकेला ही उसे बांधकर आपके सामने हाजिर कर देता हूँ।" राजा ने कहा-"अच्छा, ऐसा है तो मैं तुम्हें यह काम सौंपता हूँ।" राजसभा में सबके सामने कालसेन को पकड़ लाने की प्रतिज्ञा करके वीरसेन सिर्फ एक तलवार लेकर अकेला ही वहाँ से चल पड़ा। वह सीधा कालसेन के पास पहुँचा। उधर कालसेन भी अपनी सेना लेकर सामने आ डटा। दोनों में घमासान युद्ध हुआ। वीरसेन ने युद्ध में सबके छक्के छुड़ा दिये। बात की बात में कालसेन की सेना भाग खड़ी हुई। फलतः वीरसेन ने कालसेन को जिंदा पकड़ लिया और रस्सियों से बांधकर राजा के सामने ले आया। वीरसेन का ऐसा अद्भुत पराक्रम देखकर राजा अत्यंत विस्मित हुआ। राजसभा में सबके सब वीरसेन की प्रशंसा करने लगे-"धन्य है वीरसेन को, जिसने लाखों आदमियों से पराजित न हो सकने वाले कालसेन को बात की बात में हरा दिया।" राजा ने प्रसन्न होकर सबके सामने वीरसेन को एक लाख स्वर्णमुद्राएं इनाम दीं और उसका नाम वीरसेन से बदल कर 'सहस्रमल्ल' रखा। साथ ही उसे एक देश जागीरी में दिया। पराजित कालसेन से राजा ने अपनी आज्ञा के अधीन चलना स्वीकृत करवा कर जीता हुआ राज्य उसे वापिस दे दिया।
सहस्रमल्ल को अपने देश के राज्य का संचालन करते काफी अर्सा हो गया। एक बार वहाँ महामहिम सुदर्शनाचार्य पधारें। उनका उपदेशामृत सुनकर सहस्र
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