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श्री उपदेश माला गाथा १३८-१४०
समभावी सहस्र मुनि की कथा मल्ल नृप को संसार से वैराग्य हो गया। उसने राजपाट छोड़कर आचार्य से मुनि दीक्षा ग्रहण की। ११ अंगशास्त्रों का अध्ययन किया; और क्रमशः चारित्राराधन करते-करते जिनकल्पी चर्या स्वीकार की। एक बार विहार करते-करते सहस्रमल्ल मुनि कालसेन राजा के नगर के समीप कायोत्सर्गस्थ खड़े रहे। उन्हें देखकर कालसेन ने पहचान लिया। उसने मन ही मन सोचा-'यह पापी ही मुझे युद्ध में हराकर जीते जी पकड़कर कनकध्वज राजा के पास ले गया था। अब अच्छा मौका है; इसको अपने किये का फल चखाऊँ!' अतः दुष्ट कालसेन ने लकड़ी, ईंटों
और पत्थरों से मार-मारकर मुनि का कचूमर निकाल दिया। परंतु मुनि जरा भी क्षुब्ध न हुए। क्षमा धारण करके वे शुभध्यान में लीन रहे; जिसके कारण उपसर्ग जनित वेदना से देहान्त हो जाने पर वे सर्वार्थसिद्ध-विमान नामक देवलोक में देव हुए।
इसी प्रकार अन्य मुनियों को भी क्षमा धारण करनी चाहिए; यही इस कथा का मुख्य उपदेश है ॥१३७।।
दुज्जणमुहकोदंडा, वयणसरा पुख्वकम्मनिम्माया । ___ साहूण ते न लग्गा, खंतिफलयं वहताणं ॥१३८॥
शब्दार्थ - दुर्जनों के मुख रूपी धनुष से दुर्वचन रूपी बाण छूटते हैं, लेकिन अपने आगे क्षमा रूपी ढाल रखने वाले साधुओं को पूर्व कर्मों के द्वारा निर्मित हुए वे दुर्वचन भी नहीं लगते ।।१३८॥
पत्थरेणाहओ कीयो, पत्थरं डक्कुमिच्छड़ । मिगार सरं पप्प, सरुप्पत्तिं विमग्गइ ॥१३९॥
शब्दार्थ- कुत्ते को पत्थर मारने पर वह पत्थर मारने वाले को नहीं, किन्तु पत्थर को काटने दौड़ेगा और सिंह को बाण मारने जाने पर वह बाण को पकड़ने नहीं दौड़ता, अपितु बाण कहाँ से आया? किसने मारा? इसकी खोज करके बाण मारने वाले को पकड़ेगा ।।१३९।।
भावार्थ - इसी तरह ज्ञानी विवेकी मुनि भी दुर्वचन रूपी तार छोड़ने वाले के प्रति द्वेष नहीं करते, अपितु इस दुर्वचन रूपी बाण का प्रहार मेरे ही पूर्वोपार्जित कर्मों का फल है, यों सोचकर कर्मों का ही क्षय करने का प्रत्यन करते हैं ॥१३९॥
तह पुव्विं न कयं, न बाहए जेण मे समत्थोऽयि । __ इण्डिं किं कस्स् य, कुप्पिमुत्ति धीरा अणुप्पिच्छा ॥१४०॥
शब्दार्थ - धीरपुरुष दुःख के समय इस प्रकार चिन्तन करे कि 'हे आत्मन्! तूंने पूर्वजन्म में ऐसा सुकृत नहीं किया, जिससे तुझे समर्थ से समर्थ पुरुष भी बाधित
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