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श्री उपदेश माला गाथा ८६-८७
ज्ञान सहित तप सुनी तो उन्होंने आकर उसे झकझोर कर जगाया- "शालिभद्र! दीक्षा ही लेनी है तो यह क्या नाटक कर रहे हो, एक-एक पत्नी को प्रतिदिन छोड़ने का? एक साथ ही क्यों नहीं छोड़ देते? क्या आयुष्य का तुम्हें पक्का भरोसा है?" शालिभद्र की आत्मा जाग उठी। उसने एक ही झटके में सभी स्त्रियों का त्याग कर दिया और दोनों ने भगवान् महावीर के पास जाकर दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा लेने के बाद शालिभद्र मुनि ने घोर तपश्चर्या करते हुए १२ वर्ष तक चारित्र पालन किया और अंतिम समय में एक मास का अनशन करके आयुष्य पूर्ण कर सर्वार्थसिद्ध विमान में ३३ सागरोपम की आयु वाले अहमिन्द्र देव बनें। धन्य है, शालिभद्रमुनि को, जिसने सबसे उत्तम साधना की।
अनुत्तरं दानमनुत्तरं तपो, ह्यनुत्तरं मानमनुत्तरं यशः ।
श्रीशालिभद्रस्य गुणा अनुत्तरा, अनुत्तरं, धैर्यमनुत्तरं पदम् ॥८९।। अर्थात् - शालिभद्र के दान, तप, मान, यश, गुण, धैर्य और पद यह सभी अनुत्तर (उत्कृष्ट अद्वितीय) थें ।।८९।।
इसी तरह ज्ञान सहित तप करने से महान् फल प्राप्त होता है ॥८५।।
न करंति जे तव-संजमं च, ते तुल्लपाणिपायाणं ।
पुरिसा समपुरिसाणं, अवस्स पेसत्तणमुर्विति ॥८६॥
शब्दार्थ - जो जीव तप-संयम का आचरण नहीं करता, वह आगामी जन्म में अवश्य ही पुरुष के समान हाथ पैर वाला पुरुष की सी आकृति वाला दास बनकर दासत्व प्रास करता है ॥८६॥
भावार्थ - श्री शालिभद्र ने विचार किया था कि "राजा श्रेणिक में और मेरे में हाथ-पैर आदि अंगों में कोई अंतर नहीं है, फिर भी वह स्वामी है और मैं सेवक हूं, इसका कारण सिर्फ यही है न कि मैंने पूर्वजन्म में सुकृत कम किया है? ऐसा विचारकर उसने तप-संयम की भलीभांति आराधना की थी। इसीलिए जो साधक स्वाधीन बारह प्रकार के तप और १७ प्रकार के संयम की आराधना नहीं करता, वह जीव अगले जन्म में पुरुष के समान हाथ-पैर वाला पुरुषाकार दास बनता है ॥८६॥
सुंदर-सुकुमाल-सुहोइएण, वियिहेहिं तवविसेसेहिं ।
तह सोसविओ अप्पा, जह नवि नाओ सभयणेऽवि ॥८७॥ 1. पृथ्वीकायादि ५ स्थावर तीन विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय इन नौ की विराधना से बचना। १० अजीव (पुस्तकादि उपधि में उत्पन्न जीव की विराधना से बचना) ये १० संयम। ११ प्रेक्षा संयम, १२ प्रमार्जना संयम, १३परिष्ठापना संयम १४ उपेक्षा संयम १५-१७ तीनों योग का संयम।
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