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श्री उपदेश माला गाथा १०१-१०२
____ गुरु सेवा एवं उद्धारक गुरु इसके पश्चात् भगवान् ने उससे कहा- 'गोशालक! तूं वही गोशालक है, फिर क्यों अपने आपको छिपाता है? जैसे कोई चोर कोटवाल की नजर में आ जाने पर अपने आपको एक तिनके या अंगुली से छिपाने का प्रयत्न करे तो क्या वह छिप सकता है? इस तरह तूं भी मुझ से सीखकर बहुश्रुत हुआ है, और मेरे ही सामने बकवास करता है।' मगर प्रभु के इन हितकारी वचनों से शांत होने के बजाय गोशालक
ओर उत्तेजित हो गया। और अपने परम-उपकारी प्रभु पर उस दुरात्मा ने तेजोलेश्या फेंकी। मगर वह तेजोलेश्या भगवान् के चारों ओर तीन बार प्रदक्षिणा देकर वापिस गोशाले के ही शरीर में जा घुसी। गोशालक भभककर बोला- "हे काश्यप! तुम आज से सातवें दिन मर जाओगे।" तब भगवान् ने कहा- "मैं तो सोलह वर्ष तक केवली अवस्था में इस भूमण्डल पर विचरण करूँगा। मगर तूं तो आज से सातवें दिन असह्य वेदना सहकर इस दुनिया से चला जायगा।" गोशालक सीधा अपने स्थान पर आया। सातवें दिन गोशालक के उग्रपरिणाम शांत हो गये। इसलिए उसे सम्यक्त्व का स्पर्श हुआ, जिससे वह विचार करने लगा-"अहो! मैंने अत्यंत विरुद्ध आचरण किया है। मैंने श्रीजिनेश्वर भगवान् की आज्ञा का लोप किया। मैंने साधुओं का घात किया। इसके फलस्वरूप अगले जन्म में मेरी क्या गति होगी?" उसने तुरंत शिष्यों को अपने पास बुलाया। उनको खासतौर से कहा-"आयुष्यमंतो! मेरे मरने के बाद मेरे शब को पैर से बांधकर श्रावस्ती नगरी में चारों तरफ घूमाना, क्योंकि मैंने जिन नहीं होते हुए भी 'मैं जिन हूँ' ऐसा संसार में प्रकट किया है।" इस तरह आत्म निंदा करता हुआ मरकर गोशालक बारहवें देवलोक में उत्पन्न हुआ। शिष्यों ने गुरु की आज्ञा का पालन करने के लिए उपाश्रय के अंदर ही श्रावस्ती नगरी की स्थापना की और दरवाजे बंद करके शब के पैर पर रस्सी बांधकर उसे चारों तरफ घूमाया।
इस कथा का सारभूत उपदेश यह है कि सुनक्षत्र मुनि की तरह अन्य साधुओं को भी गुरुभक्ति में रत रहना चाहिए ॥१००।। ___ पुण्णेहिं चोइया पुरक्खडेहिं, सिरिभायणं भविअसत्ता ।
गुरुमागमेसिभद्दा, देवयमिव पज्जुवासंति ॥१०१॥
शब्दार्थ - जो पूर्वकृत पुण्य से प्रेरित होता है, भविष्य में जिस भव्यजीव का शीघ्र कल्याण होने वाला होता है। वह सद्गुणों का निधान गुरुमहाराज की इष्टदेव की तरह सेवा करता है ।।१०१।।।
बहु सोखसयसहस्साण, दायगा मोयगा दुहसहस्साणं । आयरिया फुडमेअं, केसि-पएसि य ते हेऊ ॥१०२॥
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