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श्री उपदेश माला गाथा १२४-१२७
द्रमक का दृष्टांत
जं न लहइ, सम्मत्तं लभ्रूण वि जं न एइ संवेगं । विसयसुहेसु य रज्जड़, सो दोसो रागदोसाणं ॥१२४॥
शब्दार्थ - जो जीव सम्यक्त्व को प्रास नहीं करता अथवा सम्यक्त्व प्राप्त हो जाने पर जिसमें संवेग (मोक्ष प्राप्ति की तीव्रता) नहीं आया; जो अभी तक विषयसुखों में ही रक्त रहता है, तो समजो कि उसके राग-द्वेषों का ही वह दोष है ॥१२४।। वास्तव में समस्त दोषों के कारण राग और द्वेष है। इनका त्याग करने पर ही साधक में सम्यग्दृष्टि सुदृढ़ होती है, संविग्नता (मोक्ष प्राप्ति के लिए तड़फन) पैदा होती है।।१२४।।
तो बहुगुणनासाणं, सम्मत्तचरित्तगुणविणासाणं ।
न हु वसमागंतव्यं, रागदोसाण पावाणं ॥१२५॥
शब्दार्थ - इसीलिए बहुत-से सद्गुणों को नाश करने वाले और सम्यग्दर्शनज्ञान-चरित्र आदि गुणों के विघातक राग-द्वेष रूपी पापों के वशीभूत नहीं होना चाहिए ।।१२५।।
भावार्थ - राग-द्वेष दोनों महादुःखदायी हैं। राग-द्वेष आदि ऐसे महादोष हैं, जिनसे अनेक सद्गुणों का विनाश हो जाता है। इसीलिए राग-द्वेष का दूर से ही त्यागकर देना चाहिए ॥१२५।।
न वि कुणइ अमित्तो, सुट्टवि सुविराहिओ समत्थो वि। जं दो वि अणिग्गहिया, करंति रागो य दोसो य ॥१२६॥
शब्दार्थ - जितना अनर्थ वश में (निग्रह) नहीं किये हुए राग और द्वेष करते हैं, उतना अच्छी तरह विरोध करने में समर्थ शत्रु भी नहीं करता।।१२६ ।।
____ भावार्थ - शत्रु तो कट्टर विरोधी होने पर भी एक जन्म में मारता है, मगर ये राग-द्वेष रूपी शत्रु अनंत-अनंत-अनंत जन्मों तक जीव का पिंड नहीं छोड़ते। ये बार-बार आत्मा को नुकसान पहुंचाते और उसे दुःख देते रहते हैं। इसीलिए राग-द्वेष. का त्याग करने में उद्यम करना चाहिए ||१२६।।
आगे की गाथा में राग-द्वेष का फल बताते हैंइह लोए आयासं, अजसं च कति गुणविणासं च ।
पसवंति अ परलोए, सारीरमणोगए दुख्ने ॥१२७॥
शब्दार्थ - राग और द्वेष से इस लोक में शारीरिक और मानसिक खेद होता है; वे जगत् में अपयश (बदनामी) कराते हैं और ज्ञानदर्शन-चारित्र आदि सद्गुणों का विनाश करते हैं; तथा परलोक में भी नरकगति और तिर्यंचगति के कारण होने
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