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वरदत्तमुनि की कथा
श्री उपदेश माला गाथा ११३ करना लाभदायी न समझकर वह नगर के अंदर ही रहा। काफी दिन व्यतीत हो जाने पर धुंधुमार नृप ने एक नैमित्तिक से पूछा-"अगर मैं चण्डप्रद्योत के साथ युद्ध करूँ तो उसमें मेरी जय होगी या पराजय?" नैमित्तिक ने 'मैं निमित्त देखकर आपको बताऊंगा।' नैमित्तिक ने नगर के एक चौक में आकर बच्चों को डराया। इससे बच्चे भयभीत होकर नागमंदिर में बिराजमान वरदत्त मुनि के पास पहुंचे। बच्चों को भय से कांपते हुए देखकर मुनि ने सहसा कहा- 'बालको डरो मत! तुम्हें किसी का भय नहीं है।' मुनि के मुख से ये उद्गार सुनकर नैमित्तिक ने मन ही मन निश्चय करके धुंधुमार राजा से कहा- "राजन्! आपको किसी प्रकार का भय नहीं होगा। विजय भी आपकी ही होगी।' यह सुनकर राजा को बड़ी खुशी हुई। उसने सेनासहित नगर के बाहर निकलकर चण्डप्रद्योत के साथ युद्ध छेड़ा। युद्ध में चण्डप्रद्योत की हार हुई। उसे जीता ही पकड़कर सैनिकों ने राजा धुंधुमार के सामने हाजिर किया। धुंधुमार राजा ने चण्डप्रद्योत से पूछा-'बताओ, तुम्हें क्या दण्ड दिया जाय?' उसने कहा "मैं आपके घर का मेहमान हूँ। मेहमान को जो दण्ड दिया जाता है, वही दण्ड मुझे दीजिए।" चण्डप्रद्योत के विनययुक्त नम्र वचन सुनकर धुंधुमार राजा ने सोचा
गुरुरग्निद्विजातीनां वर्णानां ब्राह्मणो गुरुः । १. पतिरेव गुरु: स्त्रीणां सर्वस्याभ्यागतो गुरुः ॥१०२।। ...अर्थात् - ब्राह्मणों का गुरु अग्नि है और ब्राह्मण वर्गों का गुरु है; . स्त्रियों का गुरु पति है और अभ्यागत (मेहमान) सभी का गुरु है ॥१०॥
अतः मेहमान होने से चण्डप्रद्योत मेरे लिये गुरु (बड़ा) और आदरणीय है। बड़े (गुरु)आदमी की किसी याचना का भंग करना भी उचित नहीं। कहा भी
याचमानजनमानसवृत्तेः पूरणाय बत जन्म न यस्य । तेन भूमिरतिभारवतीयं, न द्रुमैर्न गिरिभिर्न समुद्रैः ॥१०३।।
अर्थात् - यह पृथ्वी न तो वृक्षों से भार रूप होती है, न पहाड़ों से और न समुद्रों से ही, सचमुच यह पृथ्वी उसीसे ज्यादा बोझिल होती है, जो मनुष्य जन्म पाकर याचना करने वाले का मनोरथ पूर्ण नहीं करता ।।१०३।।
यों विचार करके राजा धुंधुमार ने अपनी पुत्री अंगारवती का विवाह चण्डप्रद्योत के साथ कर दिया और बिदाई के समय कहा- "मेरी पुत्री को विशेष सम्मानसहित रखना।" चंडप्रद्योत ने यह बात स्वीकार की और उसे अपनी पटरानी बना दी। 214