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श्री उपदेश माला गाथा ११६
चन्द्रावतंसक राजा की कथा शब्दार्थ - जो महानुभाव व्रत-नियमों को स्वेच्छा से दृढ़ निश्चय पूर्वक ग्रहण करता है और देहत्याग तक का कष्ट आ पड़ने पर भी उनके पालन का धैर्य नहीं छोड़ता (अर्थात् स्वीकृत अभिग्रह-संकल्प-पर डटा रहता है), वह अपना कार्य (मुक्ति रूपी साध्य) सिद्ध कर लेता है। जैसे चन्द्रावतंसक राजा ने प्राणांत कष्ट आ पड़ने पर भी अपना अभिग्रह नहीं छोड़ा ।।११८।। वैसे ही अन्य साधकों को करना चाहिए।
यहाँ प्रसंगवश चन्द्रावतंसक राजा का उदाहरण दे रहे हैं
___ चन्द्रावतंसक राजा की कथा
साकेतपुर का राजा चन्द्रावतंसक बहुत ही धार्मिक वृत्ति का था। उसकी रानी का नाम सुदर्शन था। राजा होते हुए भी वह परम श्रावक था। श्रावकधर्म के सम्यक्त्वसहित बारह व्रतों की वह भलीभांति आराधना करता हुआ राज्यसंचालन करता था। एक दिन राजा राजसभा के विसर्जित होते ही अपने अंतःपुर में आया
और सामायिक ग्रहण करके इस प्रकार का अभिग्रह (संकल्प) कर लिया कि 'जब तक यह दीपक जलता रहेगा, तब तक मैं कायोत्सर्ग(ध्यान) में स्थिर होकर खड़ा रहूँगा।' एक प्रहर बीता होगा कि दीपक का प्रकाश जब मंद पड़ने लगा तो राजा के अभिग्रह से अनभिज्ञ दासी ने उसमें तेल भर दिया, जिससे दीपक जलता रहा। दूसरा प्रहर बीतने आया, तब भी दासी ने दीपक में तेल डालकर उसे जलता रखा। तीसरे प्रहर भी दासी ने इसी तरह किया। यों लगातार चार प्रहर तक दीपक अखण्ड जलता रहा। जब भी बुझने को होता कि दासी उसमें तेल डालकर चली जाती। परंतु राजा ने अभिग्रह ले रखा था, दीपक के जलते रहने तक कायोत्सर्ग में स्थिर रहने का; इसीलिए उन्होंने न तो अपना मौन खोला, न संकेत किया और न हिलेडुले। आखिरकार ४ प्रहर तक लगातर खड़े रहने से सुकोमल राजा का पैर अक्कड़ गया, नसें तनने लगीं, मस्तक में अपार वेदना होने लगी; परंतु राजा ने अपने शुभ ध्यान को न छोड़ा। इसके फलस्वरूप देहांत होने के बाद वे सीधे देवलोक में पहुँचे।
अन्य साधकों को भी साधना में ऐसी दृढ़ता रखनी चाहिए; यही इस कथा का सारभूत उपदेश है ।।११८।।
___ सीउण्ह-नुप्पिवासं-दुस्सिज्ज-परिसहं किलेसं च । जो सहइ तस्स धम्मो, जो धिइमं सो तयं चरइ ॥११९॥ शब्दार्थ - जो साधु शीत, उष्ण, क्षुधा, पिपासा, दुःशय्या आदि परिषहों तथा
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