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श्री उपदेश माला गाथा ११३
वरदत्तमुनि की कथा ____ शब्दार्थ - शुद्ध मुनि को गृहस्थ के थोड़े-से परिचय (संसर्ग) से पाप रूपी कीचड़ लग जाता है। जैसे वरदत्त मुनि की चण्डप्रद्योत राजा ने हंसी उड़ाई थी कि "अजी नैमित्तिकजी! आपको वंदन करता हूँ" ||११३।। इसीलिए मुनिवर गृहस्थ का जरा भी संसर्ग न करे। प्रसंगवश यहाँ वरदत्त मुनि की कथा दी जा रही है
वरदत्तमुनि की कथा चम्पानगरी में मित्रप्रभ नामक राजा राज्य करता था। उसका मंत्री धर्मघोष था। उसी नगरी में धनमित्र नाम का एक अत्यंत राजमान्य सेठ रहता था। उसकी पत्नी का नाम धनश्री था। उसके रूप लावण्ययुक्त, तेजस्वी, नारीजन वल्लभ सुजातकुमार नाम का एक पुत्र था। एक दिन युवक सुजातकुमार धर्मघोषमंत्री के अंतःपुर के पास होकर जा रहा था; तभी मंत्री पत्नी प्रियंगुमंजरी की दृष्टि उस पर पड़ी। सुजातकुमार का रूप-लावण्य, देखकर अत्यंत मोहित हो गयी। मंत्री की अन्य सब पत्नियाँ सुजातकुमार को देखकर परस्पर कहने लगी-'सखियो! हमें यह पुरुष अत्यंत प्रिय लगता है। यह जिस स्त्री का भोक्ता होगा, वह स्त्री बड़ी भाग्यशालिनी होगी। एक दिन प्रियंगुमंजरी सुजातकुमार का वेश धारण करके अपनी सौतों के साथ पुरुष की तरह विनोद और क्रीड़ा करने लगी। यह देखकर मंत्री को सभी स्त्रियों के प्रति घृणा हो गयी। उसने सोचा- "मेरी सभी स्त्रियां इस सुजातकुमार के साथ लगी हुई हैं। धिक्कार है इन्हें!" मंत्री ने अपनी सभी पत्नियों का परित्याग कर दिया और सुजातकुमार के प्रति मन में द्वेष रखने लगा।
मंत्री ने युक्ति सोचकर सुजातकुमार के नाम से एक कूटपत्र लिखकर राजा को दिया और बताया कि "सुजातकुमार इस प्रकार के कूटपत्र लिखकर राज्य में अनाचार फैला रहा है, इसीलिए ऐसे कूटपत्र लिखने वाले को मरवा डालना चाहिए।" यह सुनकर राजा ने सोचा- "यदि मैं एकदम उसे मरवा दूंगा तो संसार में मेरी अपकीर्ति होगी।" राजा ने मन में युक्ति सोचकर सुजातकुमार को एक कूटपत्र लिखकर उसे चन्द्रध्वज राजा को पहुँचा देने को कहा। पत्र में लिखा था'इस पत्रवाहक सुजातकुमार को आते ही मार डालना।" यह वाक्य पढ़कर राजा का माथा ठनका। उसने सोचा- "इस पुरुषरत्न को मार देने का क्यों लिखा है?" राजा ने अपने गुप्तचर को भेजकर सारी असलियत जान ली। अतः कूटपत्र अपने पास गुप्त रूप से रख लिया और अपनी बहन चन्द्रयशा का सुजातकुमार के साथ विवाह कर दिया। शादी के बाद सुजातकुमार को राजा ने अपने महल में रखा। वहाँ
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