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श्री महावीर स्वामी के पूर्वजन्म की कथा
श्री उपदेश माला गाथा १०६ रूप में उत्पन्न हुआ। यौवनवय में भगवान् ऋषभदेव का उपदेश सुनकर उसे वैराग्य हो गया। अतः सांसारिक सुखभोग का त्याग करके स्थविर मुनि से उसने मुनि दीक्षा ग्रहण की। ११ अंगों का अध्ययन किया। एक दिन ग्रीष्मकाल के भयंकर ताप को न सह सकने के कारण मरिचि सोचने लगा - " आह! यह साधुधर्म तो अत्यंत कष्टदायक है। मुझसे इसका पालन होना दुष्कर है। किंतु मुनिवेष का त्याग करके घर जाना भी ठीक नहीं है।" उसे एक युक्ति सुझी । उसने अपनी कल्पना से त्रिदंडी का अनोखा वेष अपना लिया। यदि कोई उससे पूछता कि 'तुम्हारा धर्म कौनसा है ? तो वह साधु धर्म की व्याख्या करता और यदि कोई उसके उपदेश से प्रतिबोधित होता हो तो उसे भगवान् ऋषभदेव का शिष्य बनाता। इस तरह उसने अनेक राजपुत्रों को प्रतिबोधित किया। इस प्रकार मरिचि ऋषभदेव स्वामी के साथसाथ विचरण करता था। एक बार विहार करते-करते भगवान् अयोध्या पधारें। वहाँ उनका समवसरण लगा। भरत चक्रवर्ती को मालूम हुआ तो वह भी उन्हें वंदना करने के लिए आया। भगवान के प्रवचन सुनने के बाद भरत ने उनसे पूछा
"स्वामिन्! क्या इस धर्म-सभा में कोई भावी तीर्थंकर की आत्मा है?" भगवान् ने कहा'भरत ! तुम्हारा गृहस्थ - पक्ष का पुत्र मरिचि, जो इस समय त्रिदंडी संन्यासी के वेष में है, वर्तमान अवसर्पिणीकाल में अंतिम ( चौबीसवां ) तीर्थंकर वर्धमान होगा। महाविदेहक्षेत्र में मूकानगरी में प्रियमित्र नाम का चक्रवर्ती होगा और इस भरतक्षेत्र में पहला त्रिपृष्ठ नामक वासुदेव होगा। यह पहले दो पदों का उपभोगकर बाद में अंतिम तीर्थंकर होगा।" यह सुनते ही भरत अत्यंत हर्षावेश में मरिचि के पास पहुँचे और उसे तीन बार प्रदक्षिणा पूर्वक नमस्कार करके कहा" मरिचि! संसार के सर्वोत्कृष्ट लाभ आपने प्राप्त किये हैं। क्योंकि मैंने भगवान् के श्रीमुख से सुना है कि अंतिम तीर्थंकर, चक्रवर्ती और प्रथम वासुदेव होंगे, मैं आपको इस वेष के कारण या आप वासुदेव चक्रवर्ती बनेंगे इसलिए वंदन नहीं करता। परंतु आप भविष्य में अंतिम तीर्थंकर बनोगे इस दृष्टि से मैं वंदना करता हूँ। धन्य है आपको!" इस प्रकार मरिचि की प्रशंसा करके भरत अपने स्थान पर लौटे। मरीचि ने अपने भावी उत्कर्ष की बातें सुन हर्षावेश में आकर तीन बार जोर से पैर पछाड़े और नाचता हुआ कहने लगा- ' - "मेरे से बढ़कर कौन भाग्यशाली होगा! मेरे दादा प्रथम तीर्थंकर, मेरे पिता प्रथम चक्रवर्ती और मैं मूकानगरी में चक्रवर्ती, प्रथम वासुदेव और अंतिम तीर्थंकर बनूंगा। इस प्रकार मुझे तीन पद मिलेंगे। मेरा कुल ही सर्वोत्तम है ।" इस प्रकार बार - बार कुल का मद (गर्व) करने से मरिचि ने नीचगोत्र कर्म बांध लिया।
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