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बलदेव मुनि, रथकार और मृग की कथा
श्री उपदेश माला गाथा १०८ देखा। देखते ही फौरन मुनि ने उससे कहा- 'मुग्धे! जरा देख तो सही, तूं क्या कर रही है? रूप के मोह में पागल होकर इस बच्चे के गले में रस्सी डालकर क्यों मार रही है?" सुनते ही वह एकदम चौंकी और बच्चे के गले से रस्सी निकाल ली। किन्तु बलदेव मुनि विचारों की गहराई में डूब गये-'धिक्कार है मेरे रूप को! आज इसी रूप के कारण भयंकर अनर्थ होते-होते बचा! अतः इस रूप को छिपाया तो नहीं जा सकता; लेकिन शहर में आने व रहने के बजाय जंगल में रहकर इसके आकर्षण को टाला जा सकता है।'' इस प्रकार बलदेव मुनि ने जिंदगीभर वन में ही रहने का अभिग्रह (दृढ़संकल्प) कर लिया। वे तुंगिकानगरी के बाहर तुंगिकापर्वत पर रहने लगे। जिस दिन मुनि के तपश्चर्या का पारणा होता उस दिन वे वहीं जंगल में कोई सार्थवाह या लकड़हारा आया हुआ होता तो उसके यहाँ से भिक्षा लेकर निर्वाह कर लेते। जिस दिन निर्दोष आहार न मिलता, उस दिन उपवास कर लेते। इस तरह अपनी तपस्या में वृद्धि करने के फल स्वरूप बलदेव मुनि को अनेक लब्धियाँ प्राप्त हो गयी। लब्धि के प्रभाव से उन्होंने अनेक बाघों व सिंहों को उपदेश देकर प्रतिबोधित किया। और वह सिद्धार्थदेव भी उनकी सेवा में रहने लगा। एक दिन उनके उपदेश से एक अतिभद्र मृग को प्रतिबोध हुआ। वह भी रात-दिन इनकी सेवा करता और जंगल में घूमा करता। मुनि किस प्रकार का प्रासुक, ऐषणीय, निर्दोष, आहार लेते हैं इस बात को वह जान गया था। इसीलिए जंगल में जहाँ भी मुनि के योग्य निर्दोष आहार देखता, वहाँ अपने मूक इशारे और चेष्टाओं से मुनि को समझाकर स्वयं आगे-आगे होकर ले जाता और आहार दिलाने की दलाली करता था।
एक दिन जंगल में एक बढ़ई रथ बनाने के लिए लकड़ियाँ काटने व चीरने के लिए आया हुआ था। वह किसी बड़े वृक्ष की शाखा को आधी कटी हुई छोड़कर उसी वृक्ष के नीचे रसोई बना रहा था। मृग ने मुनि से अपनी चेष्टाओं द्वारा संकेत किया। फलतः मृग के साथ मुनि वहाँ पहुँचे। मुनि को देखते ही बढ़ई अत्यंत हर्षित होकर भाव पूर्वक आहार देने लगा। मृग भी वहाँ खड़ा-खड़ा शुभभावों में बह रहा था। उसी समय वह आधी कटी हुई वृक्ष-शाखा यकायक टूटकर उन तीनों पर गिरी। शाखा गिरने से तीनों की वहीं मृत्यु हो गयी। तीनों की मृत्यु शुभभावना में हुई थी, इसीलिए तीनों पंचम देवलोक में उत्पन्न हुए। तपस्या करने वाले बलदेव मुनि, आहार देकर तप में सहायक बनने वाला बढ़ई और शुभभावना पूर्वक आहार की दलाली और अनुमोदना करने वाला मृग; इन तीनों को समान फल मिला। इसीलिए जैनसिद्धान्त कहता है-'स्वयं धर्माचरण करने 208