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श्री मैतार्यमुनि की कथा
श्री उपदेश माला गाथा ६१ विवाह हो गया। मित्रदेव ने पुनः आकर मैतार्य को चेतावनी दी-"अब तो तुम्हारा विवाह इज्जत के साथ हो गया है और तुम्हें पहले की तरह प्रतिष्ठा भी प्राप्त करा दी है, अतः अब मुनि दीक्षा ग्रहण कर लो।" मैतार्य बोला- "मित्र! तुम्हारी बात ठीक है, लेकिन मैंने अभी-अभी शादी की है, अतः कम से कम १२ साल तक तो इन स्त्रियों के साथ मुझे रह लेने दो, इन्हें संतुष्ट करने के बाद में अवश्य दीक्षा ले लूंगा।'' देव ने उसकी बात कबूल कर ली। जब १२ वर्ष व्यतीत हो गये और मित्रदेव पुनः आया तो मैतार्य की सभी पत्नियों ने उससे हाथ जोड़कर विनम्र प्रार्थना की-"१२ वर्ष की मुद्दत आपने अपने मित्र को दे दी, उसी प्रकार १२ वर्ष की मुद्दत और हमारे लिये दीजिए।'' उनके विनयभाव से प्रसन्न होकर देव ने और १२वर्ष की मुद्दत मैतार्य को दी। इस प्रकार २४ वर्ष तक सांसारिक सुखों का उपभोग कर लेने के बाद मैतार्य ने वैराग्यभाव से भगवान् महावीरस्वामी के पास मुनि दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा के बाद उन्होंने ९ पूर्वो का भलीभांति अध्ययन किया और जिनकल्प स्वीकारकर एकलविहारी बनें।
- एक बार विहार करते हुए वे राजगृही पधारे। वहाँ एक दिन मासक्षमण के पारणे के रोज मैतार्य मुनि भिक्षा के लिए सुनार के यहाँ अनायास ही पहुँचे। स्वर्णकार उस समय श्रेणिकराजा के आदेशानुसार सोने के जौ (अक्षत) बना रहा था। मुनि को अपने घर आये देख काम छोड़कर एकदम उठा और भक्तिभाव पूर्वक आहार दिया। इतने में ही वहाँ एक क्रौंचपक्षी कहीं से उड़ता-उड़ता आ पहुँचा। वह उन स्वर्णयवों को खाने की चीज समझकर निगल गया और तुरंत वहाँ से उड़कर घर के ही एक ऊँचे पेड़ पर जा बैठा। मुनि ने उस पक्षी को जौ निगलते देख लिया था। सुनार ज्यों ही मुनि को भिक्षा देकर बाहर आया तो सोने के ताजे बनाये हुए जौ गायब! बहुत ढूंढ़ने पर भी जब वे नहीं मिले, तो उसे मुनि पर शंका हुई। तुरंत ही सुनार ने मुनि से जौ के बारे में पूछा- "महाराज! सोने के वे जौ कहाँ गये, जो मैंने अभी बनाये थे?'' मुनि ने सोचा-"अगर मैं उस पक्षी का नाम लूंगा तो यह अभी उसे मार डालेगा और यदि अपना नाम लेता हूं तो वह असत्य
और साधुसंस्था के लिए निन्द्य होगा। अत: मौन रहना ही ठीक है।' मुनि पक्षी के प्रति करुणार्द्र होकर मौन रहे। ऐसे समय में साधु का मौन रहना ही उचित है। दशवैकालिक सूत्र में कहा है
बहुँ सुणेइ कण्णेहिं बहुँ अच्छीहिं पिच्छइ । न य दिटुं सुयं सव्वं, भिक्खू अक्खाउमरिहई ।।९३।।
- दशवैकालिक अध्याय ८ गाथा २०
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