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श्री उपदेश माला गाथा ६७-६८
पीठ-महापीट मुनि की कथा भुन उठा। वास्तव में यह उसका अविवेक था। किसी के यथार्थ गुणों को देखसुनकर ईर्ष्या व द्वेष भावना क्यों करनी चाहिए? यह तो निरी मूढ़ता है! उस समय समभाव रखना चाहिए और उन सद्गुणों पर अनुराग करना चाहिए ॥६६॥
जड़ ताय सव्वओ सुंदरुत्ति, कम्माण उवसमेण जई ।
धम्मं वियाणमाणो, इयरो किं मच्छर यहइ ॥६७॥
शब्दार्थ- यदि कोई व्यक्ति कर्मों के उपशम से सर्वांग-सुंदर कहलाता है तो कमों के क्षय व उपशम रूप धर्म का ज्ञाता दूसरा साधक उससे ईर्ष्या-डाह-क्यों करता है? उसे स्वयं कर्मक्षय या कर्मोपशम करके वैसा सर्वांग सुंदर बनने का प्रयत्न करना चाहिए ।।६७।।
भावार्थ - कर्मबंधन के क्षय से या अप्रमत्त होकर धर्माचरण करने से ही जीव को सुंदरता-शोभा-प्रशंसा प्राप्त होती है। इस प्रकार जानने वाला तत्त्वज्ञ मुनि दूसरों को अपने से गुणों में उच्च देखकर ईर्ष्या क्यों करता है? तत्त्वज्ञ को अपने में गुणहीनता के कारण गुणवान व्यक्ति से डाह करना उचित नहीं है।।६७॥
अइसुट्टिओ त्ति गुणसमुइओ ति जो न सहइ जइपसंसं ।
सो परिहाइ प्रभवे, जहा महापीढ-पीढरिसी ॥६८॥
शब्दार्थ - अगर कोई व्यक्ति गुणवान् व्यक्ति की- 'यह अपने धर्म में स्थिर है, गुण-समूह से युक्त है,' इस प्रकार की प्रशंसा नहीं सहता तो वह अगले जन्म में हीनत्व (पुरुषवेद से स्त्रीवेद) प्राप्त करता है। जैसे पीठ और महापीठ ऋषि ने असहिष्णु होकर अगले जन्म में स्त्रीत्व प्रास किया था ।।६८॥
. भावार्थ - 'यह मुनि चारित्रधर्म में दृढ़ है, यह वैयावृत्य आदि गुणों से सम्पन्न है', इस प्रकार की जाने वाली गुणवान् व्यक्ति की प्रशंसा जो सहन नहीं कर सकता; वह पुरुष दूसरे जन्म में हीनत्व प्राप्त करता है। पुरुषत्व से स्त्रीत्व प्राप्त करता है। जैसे पीठ और महापीठ ऋषि के जीवों ने ब्राह्मी और सुंदरी के रूप में स्त्रीत्व प्राप्त किया। प्रसंगवश यहाँ पीठ-महापीठमुनि की कथा दे रहे हैं
पीठ-महापीठ मुनि की कथा महाविदेहक्षेत्र में वज्रनाभ नामक एक चक्रवर्ती सम्राट हो गया है। उसने अपनी समस्त राज्य-ऋद्धि छोड़कर मुनि दीक्षा अंगीकार कर ली। उसके बाहु, सुबाहु, पीठ और महापीठ नामक चार छोटे भाईयों ने भी विरक्त होकर दीक्षा
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