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ईर्ष्या-परनिन्दा त्याग
श्री उपदेश माला गाथा ६६-७० ग्रहण कर ली। वे सभी ११ अंगों के ज्ञाता बनें। उन चारों में बाहुमुनि ५०० मुनियों को आहार लाकर देता था; सुबाहुमुनि उतने ही मुनियों की वैयावृत्त्य (सेवा) करता था; पीठ और महापीठ मुनि विद्याध्ययन करते थें। एक दिन उनके गुरु ने बाहु और सुबाहु मुनि की प्रशंसा की, जिसे सुनकर पीठ और महापीठ मुनि ईर्ष्या से जल उठे। सोचने लगे – “इन गुरुजी का अविवेक तो देखो ! अभी तक इनका राजत्व स्वभाव नहीं बदला, तभी तो अपनी वैयावृत्य करने वाले और आहार- पानी ला देने वाले मुनियों की प्रशंसा करते हैं और हम दोनों सदा स्वाध्याय - तप में रत रहते हैं, मगर हमारी प्रशंसा नहीं करते ।" इस प्रकार ईर्ष्यावश गुणग्राहिता को छोड़कर अवगुण-दोषदृष्टि अपनाकर अशुभ कर्मबंधन कर लिया। चारित्रपालन करने से पाँचों मुनि वहाँ से आयुष्य पूर्णकर सर्वार्थसिद्ध विमान में देवरूप में उत्पन्न हुए। वहाँ से आयुष्य पूर्ण करके वज्रनाभ का जीव श्री ऋषभदेव भगवान् बना। बाहु और सुबाहु के जीव क्रमशः भरत और बाहुबलि बनें; किन्तु पीठ और महापीठ के जीवों ने पूर्वजन्मकृत ईर्ष्या के फल स्वरूप स्त्रीवेद-कर्म बांधने से ऋषभदेव की पुत्री ब्राह्मी और सुंदरी के रूप में जन्म लिया।
मतलब यह है कि जो गुणी व्यक्ति की प्रशंसा सुनकर ईर्ष्या करता है, वह पीठ और महापीठ की तरह आगामी जन्म में हीनत्व प्राप्त करता है। इसीलिए विवेकी पुरुषों को गुणों के प्रति ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए ||६८||
परपरिवायं गिण्हड़, अट्ठमय - विरल्लणे सया रमइ । डज्झइ य परसिरीए, सकसाओ दुक्खिओ निच्चं ॥६९॥
शब्दार्थ - जो दूसरे जीवों की निंदा करता है, आठों मदों में सदा आसक्त रहता है, और दूसरे की सुख-संपदा देखकर दिल में जलता है, वह जीव कषाययुक्त होकर सदा दुःखी रहता ।।६९।।
विग्गह- विवाय-रुड़णो, कुलगणसंघेण बाहिरकयस्स । नत्थि किर देवलोए वि, देवसमिईसु अवगासो ॥७०॥ शब्दार्थ - कलह और विवाद की रुचि वाले तथा कुल, गण और संघ से बाहर किये हुए जीव को देवलोक की देवसभा में भी अवकाश (प्रवेश) नहीं मिल
सकता 119011
भावार्थ दंगा - फिसाद करने वाला, मिथ्या विवाद करने वाला, कुल, गण-कुलों का समूह और चतुर्विध ( साधु-साध्वी - श्रावक-श्राविका - रूप) संघ ने जिस व्यक्ति को अयोग्य समझकर अपनी संस्था से बहिष्कृत कर दिया है, उसे
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