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श्री उपदेश माला गाथा ८३-८५
बाल तप ___ भावार्थ - पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय ये पाँच स्थावरजीव कहलाते हैं और द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय ये चार त्रसजीव कहलाते हैं-ये स्थावर और त्रस दोनों मिला कर ६ जीवनिकाय कहलाते हैं। इनकी अत्यासक्तिपूर्वक हिंसा करने वाले जगत् में हिंसाजनक शास्त्रों का उपदेश देने वाले, अज्ञान तपस्वी चाहे जितना भी दुष्कर तप करें, वह उन्हें अल्प फल देने वाला होता है। अतः हिंसा त्याग करने पर ही तप का महान् फल प्राप्त हो सकता है ॥८२॥
__परियच्छंति य सव्वं, जहट्ठियं अवितहं असंदिद्धं ।
तो जिणवयणविहिन्नू, सहति बहुअस्स बहुआई ॥८३॥
शब्दार्थ - जो जीव-अजीव आदि सर्व पदार्थों के स्वरूप को यथावस्थित, सत्य और संदेह रहित जानता है; जिनवचन की विधि का जानकार होने से वह अनेक बार बहुत लोगों के दुर्वचन सहन कर लेता है ।।८३।।
भावार्थ - जो महानुभाव जीव-अजीवादिक सभी तत्त्वों को यथावस्थित सर्वज्ञ वचन के रूप में असंदिग्ध और सत्य जानते है और मानते हैं, तथा निःसंशय रूप से हेय-उपादेय के विवेकपूर्वक आचरण करते हैं; ऐसे सिद्धान्तमार्ग के रहस्य को जानकर सत्पुरुष ही अज्ञानी लोगों के दुर्वचन को सहन करते हैं। क्योंकि तत्त्वदृष्टि से वह मान अपमान को सम गिनता है और उसीका तप महा-फलदायी होता है ॥८३।।
जो जस्स वट्टए हियए, सो तं ठावेइ सुंदरसहावं ।
वग्घीच्छावं जणणी, भदं सोमं च मन्नेइ ॥८४॥
शब्दार्थ - जो जिसके हृदय में बस जाता है, वह उसे सुंदर स्वभाव वाला मानने लगता है। बाघ की माँ अपने बच्चे को भद्र और सौम्य ही मानती है ।।८४।।
भावार्थ - जो जिसे रुचिकर होता है, वह उसे गुणयुक्त देखता है, उसके दोष वह नहीं देख पाता। व्याघ्री अभद्र, अशांत और सभी जीवों को भक्षण करने वाले अपने शिशु को भी भद्र और शांत मानती है। वैसे ही जीव अपने हृदय में जिसे जो रुचिकर लगता है, उस अपने अज्ञानतप को भी सम्यक्तप मानता है। परंतु उसका ऐसा मानना मिथ्या है ॥८४॥
मणि-कणगरयण-धण पूरियंमि, भवणंमि सालिभद्दोऽपि । अन्नो किर मज्झ वि, सामिओत्ति जाओ विगयकामो ॥८५॥ शब्दार्थ - मणि; कंचन, रत्न और धन से भरे हुए महल में रहने वाला
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