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श्री स्थुलभद्र मुनि की कथा
श्री उपदेश माला गाथा ५६ स्तनौ मांसग्रन्थी कनककलशावित्युपमितौ । मुखं श्लेष्मागारं तदपि च शशाङ्कन तुलितम् । स्रवन्मूत्रक्लिन्नं करिवरशिरःस्पर्द्धि जघनं ।। मुहुनिन्द्यं रूपं कविजन विशेषैर्गुरुकृतम् ॥६८।।
अर्थात् - स्त्रियों के दोनों स्तन मांस की गाँठों के सिवाय और क्या है, पर कवियों ने सोने के कलश से उनकी उपमा दी है; उनका मुख, कफ, थूक आदि का भंडार है, फिर भी चन्द्रमा से उसकी तुलना की गयी है। स्त्री के जघन से हमेशा पेशाब चूता रहता है, फिर भी उसे हाथियों के गण्डस्थल के समान बताया गया है। क्या कहें, स्त्री शरीर का सारा रूप ही निन्दनीय है, फिर भी कुछ विशिष्ट कवियों ने उसे बड़ा भारी महत्त्व दे दिया है।" ||६८|| हम तो इस नतीजे पर पहुँचे हैं
वरं ज्वलदयः स्तम्भ-परिरम्भो विधीयते ।
न पुनर्नरकद्वार-रामाजघन-सेवनम् ॥६९।। अर्थात् – तपे हुए लोहे के थंभे का आलिंगन करना; अच्छा लेकिन नरक के द्वार रूपी नारी के जघन का सेवन करना अच्छा नहीं है ॥६९।।
... और फिर यह बात भी है कि एक बार के स्त्री सम्भोग से अनेक जीवों का घात होता है। सुनो, वह गाथा
मेहुणसन्नारूढो नवलक्खं हणेइ सुहुमजीवाणं । ___ तित्थयराण भणियं सद्दहियव्वं पयत्तेणं ॥७०॥
अर्थात् – मैथुन संज्ञा वश उस प्रकार की क्रिया में तत्पर व्यक्ति ९ लाख जीवों (पंचेन्द्रिय जीव) का घात करता है, ऐसा तीर्थंकरों का कथन है; इस पर प्रयत्नपूर्वक श्रद्धा करनी चाहिए ।।७०।।
"देवानुप्रिये कोशा! तुम थोड़े-से जवानी के काल तक विषयोपभोग करके तृप्त हो जाने की बात कहती हो; किन्तु हमने अनंतबार अनेक जन्मों में इन विषयों का उपभोग किया है, फिर भी तृप्ति नहीं हुई तो अब कैसे हो जायगी।" नीतिकार का कथन है
अवश्यं यातारश्चिरतरमुषित्वाऽपि विषयाः, वियोगे को भेदस्त्यजति न जनो यत्स्वयममून् । व्रजन्तः स्वातन्त्र्यादतुलपरितापाय मनसः,
स्वयं त्यक्त्वा ह्येते शिवसुखमनन्तं विदधति ।।७१।।
अर्थात् - ये विषय लम्बे समय तक रहकर भी आखिर एक दिन अवश्य 152