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श्री उपदेश माला गाथा ६०-६१ सिंह की तरह मुनि तपरूपी पीजरे में रहे। गुरु वचन के अपमान का फल चौबीसी तक अपना नाम अमर कर गये, उसी प्रकार अन्य मुनियों को भी गुरुआज्ञा से व्रत पालन कर यशस्वी बनना चाहिए ॥५७।।
विसयाऽसिपंजरमिय, लोए असिपंजरम्मि तिक्रोमि । - सीहा व पंजरगया, वसंति तवपंजरे साहू ॥६०॥
शब्दार्थ - 'जैसे जगत् में तीक्ष्ण खड्गरूपी पीजरे से भयभीत सिंह लकड़ी के पींजरे में रहता है, वैसे ही विषयरूपी तीक्ष्ण तलवार से डरे हुए मुनि भी तप रूपी पीजरे में रहते हैं ।।६०।।
भावार्थ - यहाँ मुनि को सिंह की उपमा दी है। जैसे वीर पुरुष के हाथ में तीक्ष्ण तलवार, भाले आदि हथियार देखकर भय से सिंह लकड़ी के पींजरे में रहना पसंद करता है, वैसे ही शरीर रूपी पीजरे से मुक्त होकर निर्विषय सुख की इच्छा वाले मुनिवर भी विषय-कषाय रूपी भाले की तीखी नोक से डरकर तपसंयम रूपी पींजरे में ही रहना पसंद करते हैं। क्योंकि तप से संयम की और संयम से अहिंसा की रक्षा और वृद्धि होती है। अहिंसा से शुद्ध धर्म की पुष्टि होती है और आत्मा अजर-अमर पद की और बढ़ती है। इसीलिए प्रत्येक आत्मार्थी जीव को अहिंसाधर्म की रक्षा और वृद्धि के लिए पूर्वोक्त तप-संयम की आराधना करनी जरूरी है। संयम से मुनि नये आते हुए कर्मों को रोकता है और तप से पुराने कर्मों का क्षय करता है। इस प्रकार क्रमशः समस्त बाधक कर्मों का सर्वथा क्षय हो जाने पर आत्मा में सहज, शुद्ध, निरुपाधिक, अहिंसक स्वभाव पूर्ण रूप से प्रकट होता है। ऐसा पूर्ण शुद्ध आत्मा जगत् के लिए कितना उपकारी हो सकता है? यह सहज ही समझकर समर्थ पुरुषों के पावन पद चिह्नों पर चलने का तप-संयममय पुरुषार्थ सभी आत्मार्थियों को करना चाहिए ॥६०॥
जो कुणइ अप्पमाणं, गुरुवयणं न य लहेइ उवएसं । __ सो पच्छा तह सोअड़, उवकोसघरे जह तवस्सी ॥६१॥ _ शब्दार्थ - जो गुरुवचनों को ठुकरा देता है, उनके हितकर उपदेश को ग्रहण नहीं करता; वह बाद में पछताता है। जैसे सिंहगुफावासी तपस्वी मुनि ने (स्थूलभद्र मुनि से ईर्ष्यावश) उपकोशा के यहाँ जाकर पश्चात्ताप किया था ।।६१।।
भावार्थ - 'जो मुनि मिथ्याभिमानवश गुरु के वचनों की उपेक्षा करके उनका हितोपदेश ग्रहण कहीं करता अथवा गुरुवचनों का अनादर करता है, वह स्थूलभद्र मुनि के गुरुभ्राता सिंहगुफावासी तपस्वी की तरह पछताता है। स्थूलभद्र मुनि से ईर्ष्या करके गुरुवचनों की परवाह न करके वे कोशा की बहन उपकोशा
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