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सिंहवासी मुनि का दृष्टांत
श्री उपदेश माला गाथा ६१ वेश्या के यहाँ चातुर्मास बिताने चले गये थे। नतीजा यह हुआ कि उन्हें लेने के देने पड़ गये। अंततः उन्हें पश्चात्ताप करना पड़ा। सच है, जो गुरु से विमुख रहता है, वह सन्मार्ग से विमुख हो ही जाता है। इसीलिए हितैषी गुरुदेव के हितकर वचनों का सर्वप्रथम आदर करना ही विनीत शिष्य का मुख्य कर्तव्य है।' इस विषय में सिंह-गुफावासी मुनि का दृष्टांत इस प्रकार है
सिंहगुफावासी मुनि का दृष्टांत पाटलीपुत्र नगर में ही आचार्य सम्भूतिविजय के सिंहगुफावासी मुनि ने स्थूलिभद्र मुनि से ईर्ष्यावश दूसरा चौमासा कोशा वेश्या की बहन उपकोशा वेश्या के यहाँ बिताने की गुरु से आज्ञा मांगी। गुरु ने उसे इसके लिए अयोग्य समझकर आज्ञा न दी और भावी अनिष्ट की आशंका देख गुरु ने उसे समझाया- "वत्स! तेरा वहाँ चातुर्मास के लिए जाना ठीक नहीं; क्योंकि वहाँ जाने से तूं अपने चारित्र को खो देगा।" परंतु गुरु के इन्कार करने पर भी आवेश में आकर सिंहगुफावासी मुनि वहाँ से चल पड़ा और उपकोशा वेश्या के यहाँ पहुँचकर उससे चातुर्मासयापन के लिए स्थान की याचना की। उपकोशा ने मुनि को स्थान दिया। जब उसे यह पता लगा कि यह मुनि स्थूलभद्र मुनि से ईर्ष्या करके यहाँ आया है तो सोचा"इसे ईर्ष्या का फल चखाना चाहिए।" फलतः उसने अपने शरीर को सभी प्रकार के आभूषणों से सुसज्जित किया। कमर में मधुरस्वर करने वाली करघनी पहनी; . पैरों में रणकार करते हुए मणिजटित नूपुर धारण किये; कामदेव की सजीव-मूर्तिसी बनी हुई कमल के समान प्रफुल्ल नेत्रों वाली उपकोशा मुंह में ताम्बूल चबाती हुई कोयल के मधुर स्वर को भी मात करती हुई, हावभाव बताती, कटाक्ष फैकती और अंगों को लचकाती हुई रात को मुनि के पास आयी। इस मृगलोचना को देखते ही मुनि का सुस्थिर मन भी कामविकारवश हो गया। सचमुच, कामविकार दुर्जेय है। इसीलिए अनुभवियों ने कहा है
विकलयति कलाकुशलं, हसति शुचिं पण्डितं विडम्बयति । अधीरयति धीरपुरुष, क्षणेन मकरध्वजो देव ॥८१।।
अर्थात् - कामदेव क्षणभर में कलाकुशल व्यक्ति को बेचैन बना देता है, पवित्र से पवित्र पुरुष की हंसी उड़ा देता है, पण्डित को भी विडम्बित कर देता है, धीर पुरुष को अधीर बना देता है ॥८१।। और भी कहा हैमत्तेभकुम्भदलने भुवि सन्ति शूराः, केचित्प्रचण्डमृगराजवधेऽपि दक्षाः । किन्तु ब्रवीमि बलिनां पुरतः प्रसह्य, कन्दर्पदर्पदलने विरला मनुष्याः ।।८।।
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