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स्कन्दकाचार्य व उनके शिष्यों की कथा श्री उपदेश माला गाथा ४१-४२ मंगाया। राजा के नाम से उसने सजा का हुक्म जारी किया। और स्कन्दकाचार्य के देखते ही देखते क्रमशः एक-एक साधु को कोल्हू में डलवाया। कोल्हू में अपने शिष्यों को पीलते देख स्कन्दकाचार्य प्रत्येक साधु को शरीर और आत्मा का भेदविज्ञान का उपदेश देकर उसे आलोचना करवाते हैं, यथोचित प्रायश्चित्त देकर शुद्ध करते हैं, मन में समाधिभाव उत्पन्न करवाते हैं। फलस्वरूप उन साधुओं ने शरीर पर से ममत्त्व का सर्वथा त्याग कर दिया। और यही सोचा-"पीलने वाले का कोई दोष नहीं, दोष हमारी आत्मा का है; जिसने ऐसे भयंकर कर्म किये हैं। किये हुए कर्मों का फल भोगे बिना उसका क्षय नहीं हो सकता।" इस प्रकार रागद्वेष से रहित और अन्तःकरण में पालक आदि के प्रति करुणा से व्याप्त होकर उन मुनियों ने शुक्लध्यान से कर्मरूपी इन्धन को जलाकर क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होकर पालक द्वारा कोल्हू में पिलते-पिलते अंतिम समय में केवलज्ञान और मोक्ष प्राप्त किया। इस प्रकार आचार्य के सामने ४९९ साधु मुक्ति में पहुँच गये। जब उनका एक छोटा शिष्य शेष रह गया; उसे भी पापात्मा पालक जब कोल्हू में डालने लगा तो स्कन्दकाचार्य से न रहा गया। उन्होंने पालक को ललकारते हुए कहा-"अरे दुष्ट! इतने से भी तेरी तृप्ति नहीं हुई है तो तूं पहले मुझे कोल्हू में पील, बाद में इस बालमुनि को पीलना।'' पर उसने आचार्य की एक न सुनी और झटपट कोल्हू में डालकर बालमुनि को पील डाला। स्कन्दकाचार्य यह देखकर तिलमिला उठे। सोचने लगे- "इस पिशाच की कैसी दुष्टता है? मेरी आँखों के सामने इसे दुष्टात्मा ने कैसा अधमकार्य किया है? मन में आता है कि इसे भुन डालूं।" आचार्य का चेहरा क्रोध से लालसूर्ख हो गया। उनकी भ्रकुटी तन गयी। एक ही क्षण में वे अपने आपे से बाहर हो गये। क्रोधाग्नि ने उनके संयमगुणों को भस्म कर डाला। कोल्हू में पीलने के समय अत्यंत आवेश में आकर उन्होंने पालक से कहा-'ले दुरात्मा, सुन ले! मैं तुझ दुष्ट को, अधम राजा को और अतिनिर्दय नगरनिवासियों को इस दुष्टता का मजा चखाये बिना न रहूंगा। मेरे तप-संयम का फल मुझे यही मिले कि मैं तुम्हारा, राजा का और इस नगर का सत्यानाश करने वाला बनूं" पालक उनको पीलकर पूर्व की हार को विजयोन्मत्त योद्धा की तरह विजय मानकर चला गया। आचार्य ने क्रोधावेश में भान भूलकर, जो नियाणा (निदान, दुःसंकल्प) किया था, उसके फलस्वरूप वहाँ से मरकर अग्निकुमारनिकाय में देव बना।
.. मृत आचार्य के खून से लिपटे हुए रजोहरण को भ्रांति से हाथ समझकर एक गीध ने उठाया। दूसरा गीध यह देखकर उससे लड़ने लगा। इसी छीना-झपटी 118