________________
वैयावृत्य तप का फल-सुखसामग्री की प्राप्ति श्री उपदेश माला गाथा ५२-५४ समय, कर्म, काल आदि का आलंबन न लेकर, पूर्व पुरुषों द्वारा आचरित मार्ग का ही आलंबन लें और परिग्रह का सर्वथा त्याग करें, यही श्रेयस्कर मार्ग है ।।५१।।
वह-बंध-मारण-सेहणाओ, काओ परिग्गहे नत्थि? । तं जइ परिग्गहुच्चिय, जइधम्म तो नणु पवंचो! ॥५२॥
शब्दार्थ - क्या परिग्रह के कारण मारपीट, बंधन, प्राणनाश, तिरस्कार आदि नहीं होते? इसे जानता हुआ भी साधु यदि परिग्रह रखता है तो उसका यतिधर्म प्रपंचमय ही है ।।५२।।
भावार्थ - क्या परिग्रह के साथ लट्ठी आदि से मारपीट, रस्सी आदि से बांधना या कारागार में डाल देना, जान से मार डालना, अनेक प्रकार की यातनाएँ अनर्थ नहीं लगे हुए हैं? परिग्रह से ये सब चीजें सम्बंधित हैं ही। ऐसा जानकर भी जो साधु परिग्रह रखने के लिए ललचाता है तो उसका साधुधर्म केवल प्रपंची ही होता है। यानी धनसंचय करना साधुवेश की विडम्बना है। परिग्रहधारी साधु कदापि संतोष रूपी अमृत को चखने में समर्थ नहीं होता। इसीलिए साधु को किसी भी प्रकार का परिग्रह रखना उचित नहीं ॥५२॥
यही इस गाथा का सारांश है। किं आसी नंदिसेणस्स, कुलं जं हरिकुलस्स विउलस्स ।
आसी पियामहो सच्चरिएण वसुदेवनामुत्ति ॥५३॥
शब्दार्थ - "नंदीषेण कौन-सा उत्तम कुल का था? वह तो दरिद्र ब्राह्मणकुल में जन्मा था; लेकिन उत्कृष्ट धर्माचरण से ही वह (नंदीषेण का जीव) विशाल हरिवंश में यादवकुल के पितामह वसुदेव के रूप में पैदा हुआ।" अतः सिर्फ कुल तारने वाला नहीं होता; अपितु किसी भी कुल में जन्म लेकर की हुई उत्कृष्ट धर्मकरणी ही जन्मांतर में हितकारिणी और भवोत्तारिणी हुई ।।५३।।
विज्जाहरीहिं सहरिसं, नरिंद-दुहियाहिं अहमहंतीहिं । जं पत्थिज्जड़ तइया, वसुदेयो तं तवस्स फलं ॥५४॥
शब्दार्थ - उस समय जो विद्याधरियों और राजपुत्रियों ने 'मैं पहले-मैं पहले' इस प्रकार की प्रतिस्पर्धा पूर्वक सहर्ष वासुदेव को विवाह के लिए प्रार्थना की थी, वह (उसकी) तपस्या का ही फल था।।५४।।
भावार्थ - 'मतलब यह है कि वसुदेव ने पूर्वजन्म-नंदीषेण के भव में वैयावृत्य (मुनि सेवा) नामक आभ्यंतर तप किया था, उसी के फलस्वरूप वसुदेव को सुख-साम्रगीरूप फल मिला। इसीलिए परिग्रह का त्याग करके आभ्यंतर 136