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विनय, गुहग्राहिता और ब्रह्मचर्य पर स्थुलभद्र मुनि की कथा
श्री उपदेश माला गाथा ५६ पर जरा भी रोष नहीं करता, न झुंझलाकर जवाब देता है, अपितु तुरंत अपनी भूल सुधारकर बहुमान पूर्वक अपने से ज्ञान-दर्शन-चारित्र गुणों में अधिक ज्येष्ठ मुनि को वंदना करता है; इसी प्रकार की गुणग्राहिता का व्यवहार सभी साधुओं को करना चाहिए ।।५८॥
ते धन्ना ते साहू, तेसिं नमो जे अकज्जपडिविरया ।
धीरा वयमसिहारं चरंति, जह थूलभद्दमुणी ॥५९॥
शब्दार्थ - उन सुसाधुओं-संतों को धन्य है, जो अकार्यों से निवृत्त है। उन धीरपुरुषों को नमस्कार है, जो तलवार की धार पर चलने के समान दुष्कर ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करते हैं; जैसे स्थूलभद्र मुनि ने इस दुष्कर व्रत का आचरण किया था।॥५९॥ प्रसंगवश इस विषय में स्थूलभद्र मुनि का दृष्टांत दे रहे हैं
स्थूलभद्र मुनि की कथा पाटलीपुत्र में उन दिनों नंद राजा राज्य करता था। उसका मंत्री शकडाल था, जो नागर ब्राह्मण जाति का था। उसकी पत्नी का नाम लाछिलदेवी था। शकडाल के दो पुत्र थे-बड़े का नाम स्थूलभद्र था और छोटे का था-श्रीयक, तथा यक्षा आदि सात पुत्रियाँ थीं। एक दिन युवक स्थूलभद्र यौवन के उमंग में अपने मित्रों के साथ हास्यविनोद करते हुए वन के सुंदर दृश्यों को देखने गया था। वहाँ से वापिस लौट रहा था, तभी उसकी दृष्टि यौवन में मतवाली रूप लावण्य सम्पन्न कोशा वेश्या पर पड़ी। कोशा को देखते ही स्थूलभद्र उस पर मोहित हो गया। मित्रों का साथ छोड़कर वह सीधा कोशा की श्रृंगारशाला में पहुँच गया। कोशा ने उसकी बड़ी आवभगत की और अपने हावभाव एवं सम्भाषणचातुर्य से स्थूलभद्र को आकर्षित कर लिया। स्थूलभद्र भी अपना आगा-पाछा सोचे बिना रात दिन कोशा वेश्या के यहाँ रहने लगा। उसके नृत्य, गीत, राग-रंग, आमोद-प्रमोद, सहवास आदि विषय सुखों में वह इतना तल्लीन हो गया कि अपने माता-पिता
और परिवार की भी कोई सुध न रही। पिता को यह मालूम होने पर बड़ा दुःख हुआ। उसने कई बार घर आने के लिए संदेश भिजवाये, मगर स्थूलभद्र आगे से आगे अपने लौटने का वादा बढ़ाता गया। पिता ने सोचा- "पुत्र को किसी प्रकार की तकलीफ न हो।' इसके लिए वह बार-बार धन भेजता रहा। १२ वर्षों में उसने स्थूलिभद्र को साढ़े बारह करोड़ स्वर्णमुद्राएँ भेजी, स्थूलिभद्र ने इतना सब धन खर्च कर दिया। आखिर वररूचि ब्राह्मण के द्वारा किये गये षड़यंत्र के कारण शकडाल
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