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परिग्रह अनेक अनर्थों का कारण है
श्री उपदेश माला गाथा ४६ करने में कुशल राजहंस तुल्य, ऐसे मुनि को स्त्री के रक्त, मांस, चर्बी और मज्जा से परिपूर्ण इस अपवित्र शरीर रूपी कूप में रहना श्रेयस्कर नहीं। इसीलिए हमें ऐसी विवेक-विकल मनुष्यों के योग्य बातों से मतलब भी क्या? इसीलिए सेठ! अगर तुम्हारी पुत्री का मुझ पर वास्तविक स्नेह है तो उसे मेरे (संयम-साधना) मार्ग का अनुसरण करना चाहिए। इसीसे मेरा चित्त प्रसन्न होगा।"
___ धनावह ने अपनी पुत्री को समझाया। उसके मन में वज्रस्वामी का उपदेश सुनकर पहले ही वैराग्य का अंकुर प्रकट हो गया था। वह संसार के वास्तविक स्वरूप को जान गयी थी। उसके नेत्रों से हर्षाश्रु उमड़ पड़े। उसने हाथ जोड़कर वज्रस्वामी से कहा- "स्वामिन्! मुझे भवजलतारिणी दीक्षा-नौका का आश्रय देकर कृतार्थ कीजिए, जिससे मैं आपके बताये और आपके चरण-चिह्नों से अंकित संयममार्ग का अनुसरण कर सकू।" वज्रस्वामी ने कहा-"भद्रे! कुलीन नारियों के लिए यही मार्ग उचित है। तुम्हें जैसा सुख हो, वैसा करो! परंतु शुभ कार्य में विलम्ब करना ठीक नहीं।" तदनन्तर धनावह श्रेष्ठी ने दीक्षा की आज्ञा प्रदान की
और खूब धूमधाम से दीक्षामहोत्सव किया। रुक्मिणी ने उच्चतम वैराग्यभाव से दीक्षा ली। दीक्षा धारण करने के पश्चात् साध्वी रुक्मिणी ज्ञान-दर्शन-चारित्र की सम्यग् आराधना करके देवलोक में पहुँची।
इस प्रकार वज्रस्वामी ने अपने उपदेश द्वारा अनेक भव्यजीवों का उद्धार किया। वे सिर्फ ८ साल तक गृहस्थावस्था में रहे, ४४ वर्ष तक गुरुसेवा में रहे; ३६ साल तक युगप्रधान पद से विभूषित रहे और भगवान् महावीर स्वामी के निर्वाण से ५८४ वर्ष व्यतीत होने के बाद ८८ साल की उम्र में अपना आयुष्य पूर्णकर देवलोक में पहुंचे।
यह है धर्म का जीवन में जीताजागता आचरण! जैसे प्रभावशाली धर्मधुरन्धर वज्रस्वामी में निर्लोभता-धर्म, रम गया था, वैसे ही अन्य साधुओं को भी निर्लोभता-धर्म अपनाना चाहिए ॥४८।।
यही इस कथा से मुख्यतया प्रेरणा मिलती है।
अंतेउर-पुर-वल-वाहणेहिं, वरसिरिघरेहिं मुणिवसहा । कामेहिं बहुविहेहिं य, छंदिज्जंता वि नेच्छंति ॥४९॥
शब्दार्थ - 'सुंदर कामिनियाँ, नगर, चतुरंगिणी सेना, हाथी-घोड़े आदि सवारियों, उत्तम धन के भण्डार और अनेक प्रकार के साधन पंचेन्द्रिय-विषयसुख सामग्री के लिए निमन्त्रित करने पर भी मुनि वृषभ (श्रेष्ठ साधु) इन्हें बिलकुल नहीं
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