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श्री उपदेश माला गाथा ४५-४७ जन्मों की विचित्रता एवं साधु की निर्लोभता
महाव्रतिसहस्रेषु वरमेको हि तात्त्विकः ।
तात्त्विकस्य समं पात्रं न भूतं न भविष्यति ॥५६।।
अर्थात् - हजारों मिथ्यादृष्टियों से एक अणुव्रतधारी श्रावक अच्छा है, हजारों अणुव्रतियों की अपेक्षा एक महाव्रती श्रेष्ठ है और हजारों महाव्रतधारियों में एकतत्त्ववेत्ता मुनि (गणधरदेव) अधिक श्रेष्ठ होते हैं। ऐसे तात्त्विक मुनि के समान उत्तमोत्तम पात्र तो न कोई हुआ है और न होगा ।।५५-५६।।
___ "इसीलिए इन सुपात्र श्रमणों को दान देना श्रेष्ठ है और इनसे धर्मश्रवण कर ज्ञान प्राप्त करना भी हमारा कर्तव्य है।" ऐसा कहते हुए वे सब लोग वहीं यज्ञमंडप में बैठ गये और मुनि को उपदेश देने की प्रार्थना करने लगे। मुनि ने उचित अवसर देखकर धर्मोपदेश दिया। जिसे सुनकर सभी ब्राह्मणों ने देशाविरति श्रावकधर्म अंगीकार किया। हरिकेश मुनि ने भी महाव्रतों की सम्यक् प्रकार से आराधना करके केवलज्ञान प्राप्त किया और अंत में मोक्ष प्राप्त किया।
. इसीलिए जैनशासन में कुल की प्रधानता नहीं है, गुणों की ही प्रधानता है। अगर आत्मा में गुण न हों तो उच्च कुल भी क्या कर सकता है? अतः यह आत्मा कर्मानुसार नट की तरह नये-नये स्वांग धारण करके नाना योनियाँ प्राप्त करके अनेक प्रकार के शरीर (संसारपरिभ्रमणवश) धारण करता है। कुल के अभिमान को इसमें अवकाश ही कहाँ है? कर्मों को शुभ करने या क्षीण करने के लिए आत्मा में सत्य-अहिंसा, क्षमा आदि गुण प्राप्त करने का ही प्रयत्न करना चाहिए ॥४४॥
. जन्मों की विचित्रता ___ अब विभिन्न कुलों या योनियों में जन्म के कारण भूत कर्मों की विचित्रता बताते हैं
देवो नेरइओ त्ति य, कीडपयंगु त्ति माणुसो एसो । रुवस्सी य विरुयो, सुहभागी दुखभागी अ ॥४५॥ राउ ति य दमगुत्ति य, एस सपागु त्ति एस वेयविऊ । सामी दासो पुज्जो, खलो त्ति अधणो धणवइ त्ति ॥४६॥ न वि इत्थ कोऽवि नियमो, सम्मविणिविट्ठसरिसक्यचिट्ठो । अन्नुन्न रूववेसो, नडु ब्व परियत्तए जीयो ॥४७॥
शब्दार्थ - यह जीव अपने-अपने कर्मवश देव बना, नारक बना, कीड़ा और पतंग आदि अनेक प्रकार का तिर्यंच बना, मनुष्य का रूप धारण किया, कभी
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