________________
श्री उपदेश माला गाथा ४३ ।
जैनधर्म में कुन्न की प्रधानता नहीं में रजोहरण उसकी चोंच से छूट गया और रानी पुरन्दरयशा के महल के आंगन में आकर गिरा। पुरन्दरयशा पहचान गयी कि यह तो मेरे भ्राता-मुनि का रजोहरण है। परंतु उसे रक्त से लिप्त देखकर उसे गहरी आशंका हुई। इतने में तो नगर में मुनियों को कुमौत मारने का भयंकर शोरशराबा होता सुना और जब अपने विश्वस्त व्यक्तियों से सारी घटना यथार्थरूप से सुनी तो पुरन्दरयशा जोर से चिल्ला उठी"हाय रे पापात्मा! महान् अत्याचारी! दुष्ट! यह क्या भयंकर दुष्कर्म कर डाला? मुनिहत्या का पाप तो सातों ही पीढ़ियों को भस्म कर देगा। मुनिहत्या साधारणहत्या नहीं है! धिक्कार है तुम्हें! मैं अब ऐसे पापमहल में और पापमय संसार में नहीं रह सकती!" उसे संसार से विरक्ति हो गयी। उसकी आत्मा साधुत्व की साधना के लिए तड़फ उठी। शासनदेवता ने सपरिवार उठाकर उसे मुनिसुव्रतस्वामी की सेवा में पहुँचा दिया। वहाँ उसने साध्वी दीक्षा लेकर स्वकल्याण की साधना की।
इधर स्कन्दकाचार्य का जीव मरकर अपने पूर्वकृत निदान के फल स्वरूप अग्निकुमार-निकाय में देव बना। उसने अवधिज्ञान से उपयोग लगाकर कुम्भकारकटक नगर देखा। देखते ही क्रोधांध होकर उसने राजा दण्डक, दुष्ट पालक तथा नगरवासियों के सहित उस सारे प्रदेश को भस्म कर डाला। इसी कारण वह प्रदेश 'दण्डकारण्य' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। यहाँ कहना यही है कि स्कन्दकाचार्य के सभी शिष्य प्राणांत कष्ट दिये जाने पर भी क्रोधित न हुए, अपने क्षमाधर्म से जरा भी न डिगे; जिसके कारण वे सभी मोक्ष पहुँचे। इसीलिए शास्त्र में कहा है'उवसमसारं खु सामण्णं', (श्रमणत्व का सार उपशम-शांति है) कहा भी है
क्षमाखड्गं करे यस्य, दुर्जनः किं करिष्यति ।
अतृणे पतितो वह्निः स्वयमेवोपशाम्यति ॥४८॥ अर्थात् - जिसके हाथ में क्षमारूपी तलवार है, उसका दुर्जन क्या बिगाड़ सकेगा? क्योंकि तृणरहित स्थान पर पड़ी हुई आग स्वयमेव शांत हो जाती है ॥४८॥ .
___ कथा का सारांश यही है कि ऐसी उत्कृष्ट क्षमा का धारण करना ही मोक्षप्राप्ति का प्रधान कारण है।।४२।।
जिणवयण-सुइ-सकण्णा, अवगयसंसारघोरपेयाला । बालाण खमंति जई, जइत्ति किं एत्थ अच्छेरं? ॥४३॥
शब्दार्थ - जिनेन्द्र भगवान् के वचन सुनने से जिसके कान 'सुकर्ण' हो गये हैं, और जिन्होंने घोर संसार के असार स्वरूप को जान लिया है, ऐसे स्वरूपज्ञ व्यक्ति
119