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श्री उपदेश माला गाथा ४४
हरिकेशबल मुनि की कथा अभिमान करने के कारण मैंने चारित्र को दूषित किया और नीचगोत्र कर्म का बंध किया; जिसके फलस्वरूप मैं यहाँ चाण्डाल के घर में जन्मा। विशुद्ध चारित्रधर्म की आराधना करने पर अवश्य ही स्वर्गादि सुख मिलता है। सिद्धान्त भी इस बात का साक्षी है
तणसंथारनिविट्ठो वि, मुणिवरो भट्ठरागमयमोहो ।
जं पावइ मुत्तिसुहं, कत्तो तं चक्कवट्टी वि ॥५१॥
अर्थात् - जिसके राग, द्वेष, भय और मोह नष्ट हो गये हैं, वह मुनिवर अपने तृण के संथारे (घास के संथारे) पर बैठा-बैठा ही जिस मुक्ति के सुख को प्राप्त करता है, चक्रवर्ती को भी वैसा सुख कहाँ है?।।५१॥
इस तरह संवेग के रंग में हरिकेश का मन रंग गया। उसने अपने वैराग्य को सार्थक करने और संयम का रास्ता पाने के लिए उत्तम गुरु की खोज की। गुरु से अनुपम जिनप्रवचन सुनकर उसने उनसे मुनि-दीक्षा ग्रहण की। और दुष्कर छट्ठ (बेला), अट्ठम (तेला) आदि तप करने लगा। विषयों को. विष के समान समझकर हरिकेश मुनि उन्हें छोड़कर तप-संयम पूर्वक विचरण करने लगे। एक बार घूमते-घूमते एक मास के उपवास तप करके वे वाणारसी पहुँचे। वहाँ तिन्दुकवन में तिन्दुकयक्ष के मंदिर में वे कायोत्सर्ग-मुद्रा, में खड़े थे। उनकी तपःशक्ति से प्रभावित होकर तिन्दुकयक्ष भी उनकी सेवा में तत्पर हो गया। सचमुच, तप का बड़ा ही प्रभाव है। एक अनुभवी ने कहा है
यहूरं यद्दूराराध्यं यत्सुरैरपि दुर्लभम् ।।
तत्सर्वं तपसा साध्यं, तपो हि दुरतिक्रमम् ॥५२॥
अर्थात् - जो चीज दूर है या बड़ी कठिनाई से आराध्य है और देवों के द्वारा भी दुर्लभ है, वह सब तपस्या के द्वारा प्राप्त हो सकती है। क्योंकि तप का फल अचूक है ॥५२।।
जब मुनि ध्यानस्थ खड़े थे, ठीक उसी समय वाणारसी के राजा की पुत्री राजकुमारी सुभद्रा अपनी अनेक दासियों के साथ पूजा की सामग्री लेकर यक्ष की पूजा के लिए वहाँ आयी। यक्षमंदिर की प्रदक्षिणा करते समय राजकुमारी ने मलिन शरीर और मैले कुचैले वस्त्र वाले इन मुनि को देखकर कहा- "अरी! देखो तो यह भूत-सा मैले और गंदे शरीर वाला कौन है?" यों कह वह नाक-भौं सिकोड़ने लगी। थू-थू करने लगी। यक्ष राजकुमारी को मुनि की आशातना करते देख बहुत गुस्से में होकर सोचने लगा-बड़ी दुष्ट कर्मकारिणी है यह राजकन्या! जिनके चरणों की सेवा-पूजा सुर-असुर सभी करते हैं, उनकी
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