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श्री उपदेश माला गाथा ३८
चिलातीपुत्र की कथा प्रसन्नता पूर्वक मुक्ति कामिनी के श्रेष्ठ संगम से उत्पन्न शाश्वत मोक्षसुख को प्राप्त किया ॥४६॥
मतलब यह है कि जम्बूस्वामी जैसे कई सुज्ञजन सब प्रकार के विषय सुख साधन उपलब्ध होते हुए भी क्षणिक समझकर स्वेच्छा से, स्वतः प्रेरणा से छोड़ देते हैं और शाश्वत सुख में रमण करते हैं। कई प्रभव चोर सरीखे सुलभबोधि व्यक्ति जम्बूस्वामी जैसों के प्रभाव से-परतः प्रेरणा से-विरक्त होकर संसारसागर को तरने में समर्थ हो जाते हैं। यहाँ तक ३७ वी गाथा से सम्बन्धित विषय समझना चाहिए।
दीसंति परमघोरावि, पवरधम्मप्पभावपडिबुद्धा । जह सो चिलाइपुत्तो, पडिबुद्धो सुंसुमाणाए ॥३८॥
शब्दार्थ - अत्यंत भयंकर और रौद्रध्यानी व्यक्ति भी (धर्मप्रवरों के) श्रेष्ठ और शुद्ध धर्म के प्रभाव से प्रतिबुद्ध (अधर्म को छोड़कर धर्म में जाग्रत) होते दिखाई देते हैं। जैसे चिलातीपुत्र को सुसुमा के निमित्त से प्रतिबोध प्रास हो गया था ।।३८।।
भावार्थ - बहुत-से लोग अत्यंतघोर रौद्रध्यानी प्रतीत होते हुए भी शुद्ध और विशिष्ट धर्म के प्रभाव से प्रतिबुद्ध हो जाते हैं। आहत-धर्म के प्रभाव से उनकी मिथ्यात्वनिद्रा उड जाती है; उनकी अज्ञान में सोयी हुई आत्मा धर्मध्यान में जागृत हो जाती है। जैसे धनावह सेठ की दासी चिलाती का पुत्र घोर रौद्रकर्म करने वाला था, लेकिन उसी सेठ सुसुमा नाम की पुत्री के निमित्त से उसे प्रतिबोध हो गया। नीचे हम पूर्वभव के वर्णन पूर्वक चिलातीपुत्र की कथा दे रहे हैं
चिलातीपुत्र की कथा क्षितिप्रतिष्ठित नगर में यज्ञदेव नामक एक ब्राह्मण रहता था। वह व्याकरण, काव्य, तर्क, मीमांसा आदि शास्त्रों के वादविवाद में अत्यंत निपुण था और अनेक शास्त्रों में पारंगत था। एक बार उसने ऐसी प्रतिज्ञा कर ली कि-"जो मुझे विवाद में जीत लेगा, मैं उसका शिष्य बन जाऊंगा।" इस प्रतिज्ञा के बाद यज्ञदेव ने अनेक प्रतिवादियों को शास्त्रार्थ में जीत लिया। मगर एक दिन एक छोटेसे साधु के साथ विवाद में वह हार गया और अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार वह उनका शिष्य बन गया। मुनिधर्म की दीक्षा धारण करके वह भाव पूर्वक महाव्रतों का पालन करने लगा। परंतु मनुष्य का जातिस्वभाव सहसा नहीं जाता। यज्ञदेव मुनि भी अपनी पूर्वजाति
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