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जम्बूस्वामी की कथा
श्री उपदेश माला गाथा ३७ विषयसुख के साधन होते हुए भी इन्द्रियों को वश में किया है और संयम के महामार्ग पर चलने को तैयार हुए हैं।" जम्बूकुमार ने प्रभव को विभिन्न युक्तियों द्वारा धर्मपालन का उपदेश दिया। अंत में, प्रभव ने भी वैराग्यवासित और प्रभावित होकर अपने उद्गार निकाले-"जम्बूकुमारजी! आपने मुझ पर महान् उपकार किया है। आपने द्रव्य और भाव दोनों रूप में बन्धनों को तोड़ने की अभिलाषा मुझ में जगा दी है। अब मैं भी अपने साथियों को सहमत करके आपके साथ ही महाव्रतों का पथ अंगीकार करूँगा।"
प्रभात हुआ। आज का सुनहला प्रभात राजगृह नगर के लिए नई रोनक, नया संदेश और नया उत्साह लेकर आया। जहाँ देखो, वहाँ जम्बूकुमार के वैराग्य की चर्चा हो रही थी। प्रभव आदि ५०० चोरों के विरक्त होने की बात सुनकर तो लोग आश्चर्य से दाँतों तले अँगली दबाने लगे। सम्राट् कोणिक के कानों में भी यह बात पड़ी। सम्राट ने भी जम्बूकुमार को मुनिदीक्षा न लेने के लिए बहुतेरा समझाया, पर वे अपने निश्चय पर अटल रहे। माता-पिता, सास-ससुर तथा परिवार के सब लोगों ने जम्बूकुमार को समझाया, पर उन्होंने एक न मानी। आखिर जम्बूकुमार ने उत्साहपूर्वक पुण्योपार्जित करने के लिए सातों धर्मक्षेत्रों में बहुत-सा द्रव्य खुले हाथों दिया। कोणिक सम्राट ने जम्बूकुमार आदि सबका दीक्षा-महोत्सव अपनी ओर से किया। प्रभव आदि ५०० चोर, जम्बूकुमार के माता-पिता, आठ पत्नियाँ और उनके माता-पिता, यों कुल ५२७ व्यक्ति जम्बूकुमार के साथ जैनेन्द्रीदीक्षा अंगीकार करने के लिए आर्यश्री सुधर्मास्वामी के पास आये और ५२७ ही व्यक्तियों ने चारित्र धारण किया। जम्बूकुमार ने मुनि बनने के बाद क्रमशः द्वादशाङ्गी का अध्ययन किया, चतुर्दशपूर्वधर हुए और चार ज्ञान प्राप्त करके श्री सुधर्मास्वामी के उत्तराधिकारी गणधर पद से विभूषित हुए। उसके बाद चार घनघाती कर्मों का क्षय करके उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया और मोक्ष में जा बिराजे। एक श्लोक में उनकी गुणगाथा इस प्रकार है
धन्योऽयं सुरराजराजिमहितः श्रीजम्बूनामा मुनिस्तारुण्येऽपि, पवित्ररूपकलितो यो निर्जिगाय स्मरम् । त्यक्त्वा मोहनिबन्धनं निजवधूसम्बन्धमत्यादरान्, मुक्तिस्त्रीवरसङ्गमोद्भवसुखं लेभे मुदा शाश्वतम् ॥४६।।
अर्थात् - धन्य है इन्द्रों के द्वारा पूजित श्री जम्बू नामक मुनि को, जिन्होंने पवित्र रूप और लावण्य से सम्पन्न तरुणाई में भी कामदेव को जीत लिया और मोह के मूल कारण-अपनी पत्नियों के साथ संबंध-को अत्यंत आदर पूर्वक छोड़कर 106