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भरतचक्रवर्ती का दृष्टांत
श्री उपदेश माला गाथा २०
हुई अपनी दादीमां श्री मरुदेवी माता को हाथी पर बिठाकर बड़े आडम्बर के साथ भरत वंदन के लिए चला। मार्ग में भरतराजा ने मरुदेवी माता से कहा - " माता जी ! आप अपने पुत्र की समृद्धि तो देखिए! आप मुझे प्रतिदिन कहती थीं- 'मेरा पुत्र वन-वन में धूम रहा है और कष्ट पा रहा है; लेकिन तूं उसकी कोई खोज - खबर नहीं लेता।' इस प्रकार मुझे उपालंभ दिया करती थीं। अब जरा अपने पुत्र का ऐश्वर्य तो देखिए । "
असल में, उस समय चौसठ इन्द्रों ने एकत्रित होकर समवसरण की रचना की थीं। करोड़ों देव-देवी इकट्ठे हुए थें। अनेक वाद्यों की आवाज से सारा आकाश मण्डल गूंज रहा था। 'जय जय' की ध्वनि हो रही थी, नृत्य गीत हो रहे थें। प्रभु सिंहासन पर बैठकर उपदेश दे रहे थें। उस समय देव - दुर्दुभि की ध्वनि और 'जय जय' के नारे सुनकर मरुदेवी माता ने कहा- "यह कौन - सा कौतुक है यहाँ ?" भरत ने कहा- यह आपके पुत्र ऋषभ का ऐश्वर्य है।" मरुदेवी विचार करने लगी- 'अहो ! पुत्र ने तो इतनी समृद्धि प्राप्त कर ली? मैं तो समझ रही थी कि मेरा बेटा बड़े कष्ट में होगा ! परंतु यहाँ तो ओर ही दृश्य देख रही हूँ।' इस तरह की उत्कंठा से माताजी के हर्षाश्रु उमड़ पड़े। उनके नेत्र पटल खुल गये। उन्होंने विस्फारित नेत्रों से सारा दृश्य प्रत्यक्ष देखा। सहसा कण्ठ से वाणी फूट निकली - 'अहो ! मेरा पुत्र ऋषभ इतना ऐश्वर्यशाली है? मैं तो समझती थी कि कष्ट में मुझे याद करेगा। परंतु इसने मुझे एक बार भी याद नहीं किया? मैं तो एक हजार वर्ष तक पुत्र मोह से दुःखित थी, और इसके मन में जरा भी मोह नहीं है। अहो ! धिक्कार है मेरी मोह की चेष्टा को ! मोहान्ध मनुष्य कुछ भी नहीं सोचता। इस तरह वैराग्यरस में डूबकर वे क्षपक श्रेणि पर आरूढ़ हुई। आठ कर्मों का क्षय कर डाला और केवलज्ञानकेवलदर्शन प्राप्त कर वे मोक्ष पहुँची । देवों ने उसका महोत्सव किया। इन्द्र आदि सभी देवों ने समवसरण से आकर मरुदेवी माता के निष्प्राण शरीर को क्षीर सागर के प्रवाह में बहा दिया। तत्पश्चात् शोकातुर भरत को आगे करके सभी समवसरण में पहुँचे। प्रभु को तीन बार प्रदक्षिणा देकर भरत यथायोग्य स्थान पर बैठा। प्रभु की वाणी सुनकर भरत का शोक दूर हुआ। धर्मदेशना के बाद भरत ने प्रभु को वंदन किया और उनसे श्रावक धर्म (सम्यक्त्व) अंगीकार करके अयोध्या में आया। और तब चक्ररत्न का उत्सव किया। -
आठ दिन बीत जाने के बाद चक्ररत्न पूर्व दिशा में चला। भरत राजा ने भी छह खण्ड पर विजय के लिए सेनासहित प्रस्थान किया। वे प्रतिदिन एक-एक
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