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ब्रह्मदत्तचर्की की कथा
श्री उपदेश माला गाथा ३१ पुरुष अन्य स्त्री में आसक्त है। और जिस पर वह आसक्त है, वह स्त्री मुझे चाहती है। इसीलिए उसे (रानी को) धिक्कार है, उसके यार को धिक्कार है, काम को धिक्कार है और मुझे भी धिक्कार है ॥२८॥
किन्तु पाप का घड़ा फूटे बिना नहीं रहता। बहुत दिनों के बाद उन । दोनों के अनाचार का वह पाप कोढ़ की तरह फूट निकला। राजा को उनके दुराचार का पता चल गया। उसे बड़ा क्रोध आया। सोचा-"इस दुष्ट पापात्मा ने अत्यन्त नीच कर्म किया है। इसने अपने हाथों से मौत बुलायी है। इसके पाप का फल इसे चखाना चाहिए। यह बुद्धिमान है तो क्या हुआ? ऐसे नीच कर्म करने वाले की उपेक्षा बिलकुल नहीं की जा सकती।'' कहा भी है
लूणह घूणह कुमाणस, ए तिहुँ इक्कसहाओ । जिहां जिहां करे निवासडो, तिहां तिहां फेडे ठाओ ॥२९॥
अर्थात् - 'लून' (दीवार में जो जीव लग जाता है (उदेही)) घुन (लकड़ी में जो जीव लगता है) और खराब मनुष्य ये तीनों एक ही स्वभाव वाले होते हैं। ये जहाँ-जहाँ निवास करते हैं वहाँ-वहाँ रहने के स्थान का ही नाश करते हैं ॥२९॥
लून दीवार आदि को नष्ट कर देता है, घुन लकड़ी को खा जाता है और दुर्जन को आश्रय देने पर वह उसी घर को बर्बाद कर देता है। अतः इस प्रधान को मौत की सजा दे देना ही उचित है। ऐसा विचारकर राजा ने चांडाल को बुलाकर हुक्म दिया-"इसे वध्यभूमि में ले जाकर खत्म कर दो।" राजा की आज्ञा से चांडाल नमुचि को वध्यभूमि में ले गया। परंतु उसे मारने से पहले वह सोचने लगा-"यद्यपि नमुचि बुद्धिमान है। लेकिन विनाशकाल आता है तो बड़े-बड़े बुद्धिमानों की बुद्धि नष्ट हो जाती है। इसने बुद्धि पर मोह का पर्दा पड़ जाने से मोहकर्मवश ही ऐसा काम किया है।" कहा है
न निर्मिता केन न दृष्टपूर्वा, न श्रूयते हेममयी कुरङ्गी । तथापि तृष्णा रघुनन्दनस्य, विनाशकाले विपरीतबुद्धिः ।।३०।। .
"किसी ने सोने की हिरनी पहले कभी बनी हुई न देखी है, और न ही सुनी है; फिर भी रघुनंदन राम की तृष्णा स्वर्णमृगी के लिए जाग गयी थी। इसीलिए विनाशकाल में विपरीत बुद्धि हो जाती है।" ॥३०॥ और भी कहा है
रावण तणे कपाल, अट्ठत्तरसो बुद्धि वसे । लङ्काफीटणकाल, एके बुद्धि न साम्भरी ॥३१।।
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