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श्री उपदेश माला गाथा २०
प्रसन्नचन्द्र राजर्षि की कथा मैंने प्रसन्नचंद्र मुनि को वंदना की थी; उस समय यदि वे मुनि कालधर्म को प्राप्त हो जाते तो उनको कौन-सी गति प्राप्त होती ?" भगवन् ने कहा - "उस समय अगर वह मुनि मर जाता तो सातवीं नरक में जाता। " श्रेणिक ने फिर पूछा - "भगवन् अब वे काल करें तो कहाँ जायेंगे?" भगवान् ने कहा - "छट्ठी नरक में " कुछ क्षणों के बाद पूछा – “भगवन्! अब कहाँ जायेंगे?" प्रभु ने कहा - "पांचवीं नरक में।" इसी तरह फिर क्रमशः उन्होंने चौथी, तीसरी, दूसरी और पहली नरक के जाने का बताया। बाद में श्रेणिक ने पूछा - " भगवन्! इस समय अगर उनका शरीर छूट जाय तो कहाँ जायेंगे?" भगवान् ने कहा - " प्रथम देवलोक में। " श्रेणिक ने फिर यही प्रश्न बारबार दोहराया तो भगवान् ने अनुक्रम से दूसरा, तीसरा, चौथा, पाँचवां, छट्ठा, सातवाँ, आठवाँ, नौवाँ, दसवाँ, ग्यारहवाँ बारहवाँ देवलोक बताया। तत्पश्चात् क्रमशः नौ ग्रैवेयक और पाँच अनुत्तर विमान में जाने का कहा। इस तरह श्रेणिक राजा प्रश्न पूछता जाता था और भगवान् उसका उत्तर देते जा रहे थे। इस तरह धर्मसभा में प्रश्नोत्तर चल रहे थें कि आकाश में देवदुंदुभियाँ गड़गड़ाने लगीं। श्रेणिक ने पूछा - "प्रभो ! ये देवदुंदुभियाँ किसलिए बज रही हैं?" प्रभु ने उत्तर दिया- "प्रसन्नचन्द्र राजर्षि को केवलज्ञान हो गया है। इसीलिए देव देवदुंदुभियाँ बजा रहे हैं और जय-जयनाद कर रहे हैं। " श्रेणिक राजा ने विस्मित होकर पूछा - " भगवन् ! यह कैसी विस्मयजनक बात है ? यह अटपटी बात समझ में नहीं आ रही है। कृपया, इसका वास्तविक रहस्य बताइए, जिससे मेरे मन का समाधान हो जाय । " प्रभु ने संक्षेप में कहा - ' - "राजन् ! सर्वत्र मन की ही प्रधानता है।" कहा है
मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः । क्षणेन सप्तमीं याति, जीवस्तण्डुलमत्स्यवत् ॥१०॥ अर्थात् - मनुष्यों का मन ही बंधन और मोक्ष का कारण है। तंदुल नाम का मत्स्य का जीव (मानसिक दुर्भावों के कारण ) थोड़े ही समय में (अन्तर्मुहूर्त) सातवीं नरक में चला जाता है ||१०|| और भी कहते हैंमण मरणे इंदियामरणं, इंदियमरणे मरंति कम्माई | कम्ममरणेण मुक्खो, तम्हो मणमारणं पवरं ||११||
अर्थात् - मन को मारने ( वश करने) से इन्द्रियाँ मरती ( वश होती) हैं। इन्द्रियों के मरण ( वश करने) से, कर्म मरते ( नष्ट होते) हैं; कर्ममरण से मनुष्य का मोक्ष होता है। इसीलिए मन को मारना ( वश करना) ही श्रेष्ठ है || ११ || भगवान् ने रहस्य का उद्घाटन करते हुए कहा - " श्रेणिक ! सुनो, जिस समय तुमने प्रसन्नचन्द्र मुनि को वंदन किया था, उस समय तुम्हारे दंडधर दुर्मुख के
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