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बाहुबलि का दृष्टांत
श्री उपदेश माला गाथा २५ अपने स्थान पर लौटे। बाहुबलि अकेले उसी स्थान पर ध्यानमुद्रा में खड़े रहे। उस समय बाहुबलि के मन में विचार आया- "मुझे भगवान् ऋषभदेव के पास जाने की क्या जरूरत है? क्या मैं स्वयं अपनी साधना नहीं कर सकता? अगर वहाँ गया तो अपने से छोटे भाइयों जो भगवान् ऋषभ देव के पास मुझसे पूर्व दीक्षित हैंउनको वंदन करना पड़ेगा। न बाबा, यह मुझसे नहीं होगा। मैं तो अकेला ही कठोरतम साधना करके केवलज्ञान प्राप्त करके बता दूंगा।'' इस अभिमान को अपने में समाये हुए बाहुबलि ने एक साल तक शर्दी, गर्मी, वर्षा, तूफानी ठंडी-गर्म हवाएँ आदि परिषह सहे। आग से झुलसे हुए पेड़ की तरह अपने शरीर को कृश कर लिया। उनके शरीर के आसपास बेलें छा गयी। पैरों पर दर्भ के नुकीले पत्ते खड़े हो गये। दीमकों ने आसपास बांबी बना ली। दाढ़ीमूछों आदि के बालों पर पक्षियों ने अपने घोंसले बना लिये। फिर भी बाहुबलि अपने कठोर कायोत्सर्ग में स्थिर रहे। मगर धर्म में अन्तराय भूत अभिमान के कारण इतनी कष्टदायक साधना के बावजूद भी उन्हें केवलज्ञान प्राप्त न हुआ। . भगवान् ऋषभदेव ने भवितव्यता परिपक्व होने पर ब्राह्मी और सुन्दरी दो साध्वियाँ बाहुबलि को अभिमानरूपी हाथी से नीचे उतरने का प्रतिबोध देने के लिए भेजीं। दोनों साध्वियाँ जहाँ बाहुबलिमुनि कायोत्सर्गस्थ थे, वहाँ आयी और मधुर स्वर में कहने लगीं- "बन्धु! हाथी से नीचे उतरो।" साध्वीबहनों के वचन सुनकर बाहुबलि विचार करने लगे- "मैं तो सर्व-संग (परिग्रह) का परित्याग कर चुका हूँ। फिर मेरे पास हाथी कहाँ? परंतु ये साध्वीबहनें झूठ तो नहीं कह सकती। जरूर इनकी बात में कुछ रहस्य है।" अन्तर्मन्थन करते-करते उन्हें सूझा-"अरे! अब मैं समझ गया। मैं अभिमानरूपी हाथी पर चढ़ा हुआ हूँ। सचमुच ये बहनें मुझे इसी हाथी से नीचे उतरने को कह रही हैं। मैंने इतनी कठोर बाह्य-क्रियाएँ तो कर लीं, लेकिन अंतर से अभिमान को न निकाला। वंदनीय दीक्षा ज्येष्ठ लघु भ्राताओं को वंदन करने में हिचकिचाता रहा। धिक्कार है मुझ अभिमान के पुतले को! छोटे भाईयों (जो कि मेरे से बड़े साधु हैं) को वंदन करने में मेरा क्या बिगड़ जायगा! बस, अभी वंदना करने जाता हूँ।" यों सोचकर ज्यों ही उन्होंने उधर जाने के लिए कदम उठाया, त्यों ही उन्हें केवलज्ञान की ज्योति प्राप्त हो गयी। वे वहाँ से भगवान् ऋषभदेव के पास पहुँचे और उन्हें वंदनाकर केवलज्ञानियों की पंक्ति में जा बैठे।
___ इस कथा का सारांश यह है कि अभिमान से धर्म नहीं होता। धर्म होता है सरलता से। इसीलिए यह कथन उचित ही है कि मोक्षसुख के अभिलाषी
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