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श्री उपदेश माला गाथा २५
बाहुबलि का दृष्टांत गिराते थे। कई सिंहनाद करते थे और कई हाथों को जोर से फटकार कर वैरियों के हृदय को फाड़ रहे थे। इस प्रकार योद्धागण अपने स्वामी की भृकुटि के इशारे पर उत्तेजित होकर जोरों से युद्ध करने लगे। कहा है कि
राजा तुष्टोपि भृत्यानां, मानमात्रं प्रयच्छति ।
ते तु सन्मानमात्रेण, प्राणैरप्युपकुर्वते ।।२०।। । अर्थात् - राजा खुश होने पर सेवक को केवल सन्मान देता है, परंतु सेवक केवल उस सन्मान का बदला अपने प्राणों को देकर देता है ॥२०॥
युद्ध में एक मित्र दूसरे मित्र से कहता है-"मित्र! डरपोक मत बन; क्योंकि युद्ध में दोनों प्रकार से सुख मिलेगा। अगर जीते रहे तो इस लोक का सुख मिलेगा और मर गये तो परलोक में देवांगनाओं (देवियों) के आलिंगन का सुख मिलेगा।" कहा भी है
जिते च लभ्यते लक्ष्मी मंते चाऽपि सुराङ्गना । . क्षणविध्वंसिनी काया, का चिन्ता मरणे रणे ॥२१॥
. 'रण में जीतने से लक्ष्मी मिलती है और मरने से देवांगनाएँ। आखिर यह शरीर तो नाशवान है, फिर युद्ध में मरने की क्या चिंता है?' ॥२१॥
इस प्रकार युद्ध करते-करते बारह वर्ष बीत गये। दोनों ओर की सेना डटी हुई थीं; किसी की भी सेना पीछे नहीं हटी। करोड़ों देव युद्ध देखने के लिए उस समय आकाश में आये हुए थे। सौधर्म इन्द्र के मन में करुणा के दिव्य विचार की किरण फूटी-"अहो! कर्मगति विचित्र और विषम है। दोनों सहोदर भाई हैं। राज्य के लिए दोनों ने करोड़ों मनुष्यों का संहार कर दिया। क्यों नहीं मैं वहाँ जाकर युद्ध बंद करा दूं, जिससे यह संहार-लीला रुक जाय।" यों विचारकर इन्द्र भरत के पास आया और बोला- "हे ६ खंड के अधिपति चक्रवर्ती! यह आप क्या कर रहे हैं? अनेक राजाओं के स्वामी भरत! यह आपने क्या संहार-लीला शुरु कर दी? क्या आप जगत् का संहार करके इसे नामशेष करेंगे? धिक्कार है आपको! श्रीऋषभदेव ने चिरकाल तक प्रजा का पालन किया, उस प्रजा को क्या आप खत्म कर डालेंगे? ऐसे उत्तम पिता के सुपुत्र होने के नाते आपको ऐसा आचरण करना उचित नहीं है। सुपुत्र तो पिता की तरह ही आचरण करता है। हे राजेन्द्र! इस नरसंहार को रोको।" भरत ने कहा-"पिता का भक्त ऐसा ही होता है; यह सत्य है। मैं यह बात बखूबी जानता हूँ। फिर भी मैं क्या करूँ? मेरा चक्ररत्न आयुधशाला में प्रवेश नहीं करता। यदि मेरा छोटा भाई बाहुबलि एक बार मेरे पास आ जाता, तो मुझे कुछ भी नहीं करना पड़ता। उसका राज्य लेने की मेरी
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