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श्री उपदेश माला गाथा २०
प्रसन्नचन्द्र राजर्षि की कथा रचना की। उद्यानपालक ने नगर में जाकर राजा श्रेणिक को खुशखबरी सुनायी'स्वामिन्! आपके मन को अत्यन्त प्रिय श्रमण भगवान् महावीरस्वामी उद्यान में पधारें हैं।" यह सुनकर राजा को अति प्रसन्नता हुई। उसने उद्यानपाल को कोटिप्रमाण धन और सोने की जीभ बनवा कर दी। श्रेणिक राजा बड़े आंडबर से भगवान् महावीरस्वामी को वंदन करने के लिए चला। राजा की सेना के आगेआगे सुमुख और दुर्मुख नाम के दो दण्डधर (रक्षापाल) चल रहे थे। प्रसन्नचन्द्र मुनि को वन में कायोत्सर्ग-मुद्रा में खड़े देखकर सुमुख बोला-"धन्य है इस मुनि को, जिसने महान् राजलक्ष्मी का त्यागकर संयम रूपी लक्ष्मी ग्रहण की है। इनके नाम लेने मात्र से पाप नष्ट हो जाते हैं, तो फिर सेवा करने से तो कहना ही क्या? यह सुनते ही दुर्मुख तपाक से बोला-बस, बस रहने दो इसकी तारीफ! तुम्हें पता नहीं है। इसे काहे का धन्य! यह तो महापापी है। इसके समान संसार में और कौनसा पापी होगा?" सुमुख मन ही मन विचार करने लगा 'सच है, दुर्जन का स्वभाव ही ऐसा होता है। वह गुणों में भी दोष देखता है।' अनुभवियों ने ठीक ही कहा
आक्रान्तेव महोपलेन मनिना शप्तेव दुर्वाससा, सातत्यं बत मुद्रितेव जतुना नीतेव मूछाँ विषैः । बद्धेवाऽतनुरज्जुभिः परगुणान् वक्तुं न शक्ता सती,
जिह्वा लोहशलाकया खलमुखे विद्धव संलक्ष्यते ॥६।। ___ अर्थात् - दुर्जन मनुष्य के मुख में जीभ ऐसी लगती है, मानो वह बड़े भारी पत्थर से दबी हुई हो, मानो उसे दुर्वासा ऋषि का शाप लगा हुआ हो, मानो वह लाख से निरंतर चिपकाई हुई हो, या वह मानो विष से मूर्च्छित की गयी हो। अथवा बारीक डोरी से मानो बांधी हुई हो या लोहे की सलाई से मानो बींधी हुई हो; ॥६। जिसके कारण वह दूसरों के गुणों को कहने में असमर्थ होती है
आर्योऽपि दोषान् खलवत्परेषां, वक्तुं हि जानाति, परं न वक्ति । किं. काकवत्तीव्रतराननोऽपि, कीरः करोत्यस्थिविघट्टनानि ॥७॥
अर्थात् - सज्जन पुरुष भी दुर्जन मनुष्य की तरह दूसरों के दोषों को कहना जानता है, परंतु वह कहता नहीं। क्या कौएँ की तरह तोते की चोंच तीखी नहीं होती? जरूर होती है, पर वह हड्डियों के टुकड़े तोड़ती नहीं फिरती।।७।।
यह सोचकर सुमुख ने उससे कहा कि–'हे दुर्मुख! तूं किसलिए इस मुनीश्वर की निन्दा करता है?' तब दुर्मुख बोला-"अरे! इस पापी का नाम भी न लो! क्योंकि इस मुनि ने पाँच वर्ष के बालक को राजगद्दी पर बिठाकर खुद ने
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