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श्री उपदेश माला गाथा २०
प्रसन्नचन्द्र राजर्षि की कथा की शोभा है। शरीर की यह कितनी असारता है कि वह पर पुद्गलों से ही शोभास्पद लगता है। अहो! मैंने अपने जीवन में क्या किया? इस असार शरीर के लिए बहुत से आरंभ-समारंभ किये। इस असार संसार में सभी वस्तुएँ अनित्य है। कोई किसी का नहीं हैं। मेरे भाइयों को धन्य है कि जिन्होंने बिजली की चमक के समान चंचल राज्यसुख को छोड़कर संयम अंगीकार किया है। मुझे धिक्कार है कि मैं इस अनित्य संसार-सुख में नित्यत्व-बुद्धि से मोहित होकर बैठा हूँ| इस देह को धिक्कार है। और सर्प के फणों के समान इन विषयों को धिक्कार है! अरे! आत्मन्! इस संसार में तू अकेला ही है; और कोई तेरा नहीं है।" इस प्रकार अनुप्रेक्षा (गंभीर चिंतन) करते हुए भरत परमपद पर चढ़ने के लिए सोपानरूप क्षपक-श्रेणी पर आरूढ़ हुए। चार घनघाती कर्मों का क्षय करने से उन्हें उज्ज्वल केवलज्ञान प्राप्त हुआ। उसी समय शासनदेव शक्रेन्द्र ने आकर उन्हें मुनिवेश अर्पण किया। मुनिवेष धारण कर इस भूमण्डल पर विचरण कर स्वपर-कल्याण करते हुए भरत केवली ने क्रमशः मोक्षसुख प्राप्त किया। इसीलिए आत्मसाक्षिक अनुष्ठान ही फल देने वाला होता है। दूसरे की साक्षी से दूसरों के सामने अपने धर्मानुष्ठानों का ढिंढोरा पीटने से वे धर्मानुष्ठान-क्रिया आदि यथेष्ट फल नहीं देते। इस प्रकार आध्यात्मिक स्वतःस्फुरित (स्वसाक्षिक) अनुष्ठान में भरत चक्रवर्ती का दृष्टांत समझना
चाहिए।
अब प्रसन्नचन्द्र राजर्षि का दृष्टांत कहते है
प्रसन्नचन्द्र, राजर्षि की कथा पोतानपुर नगर में प्रसन्नचन्द्र नाम का राजा राज्य करता था। वह अतीव धार्मिक, सत्यवादी और न्यायधर्म में कुशल था। एक दिन संध्या समय गवाक्ष (खिड़की) में बैठा हुआ वह नगर का दृश्य देख रहा था। उस समय आकाश में अनेक प्रकार के रंगबिरंगे बादल छाये हुए थे। संध्या का रंग भी खिला हुआ था। उसे देखकर राजा को अत्यन्त प्रसन्नता हुई। वह उसकी ओर गौर से बारबार देखने लगा। थोड़ी ही देर में बादल भी बिखर गये और संध्या की लाली भी क्षणिक होने के कारण मिट गयी। यह देखकर राजा विस्मित होकर विचार में डूब गया- "अरे! अभी-अभी तो संध्या की लाली सुन्दर दिखायी दे रही थी। इतनी ही देर में वह संध्यारंग की सुन्दरता कहाँ गयी। पुद्गल अनित्य है। इस संध्यारंग के समान यह शरीर भी तो अनित्य है। संसार में जीवों को कहीं भी कुछ
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