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श्री उपदेश माला गाथा ६-११
उपदेशक गुरु के लक्षण श्रेष्ठ माना जाता है और मनुष्यों में राजा श्रेष्ठ हैं, उसकी सभी आज्ञा मानते हैं; वैसे ही साधु-समूह (गच्छ) में गुरुमहाराज (आचार्य आदि) श्रेष्ठ हैं और आनंद को देने वाले हैं ॥८॥
अब बाल्यावस्था के गुरुमहाराज की महिमा बतलाते हैंबालुति महीपालो, न पया परिभयइ एस गुरु-उवमा । .. जं या पुरओ काउं, विहरंति मुणी जहा सोऽयि ॥९॥
शब्दार्थ - जैसे राजा बालक होने पर भी, प्रजा उसका अपमान नहीं करती; यही उपमा गुरु को दी गयी है। जैसे गीतार्थ मुनि चाहे बालक हो; उस बाल गुरु को भी प्रमुख मानकर विचरण करना चाहिए ।।९।।
भावार्थ - राजा बालक होने पर भी प्रजाजन उसका पराभव या तिरस्कार नहीं करते, अपितु उसे मान्य कर लेते हैं। यही बात गुरु के सम्बन्ध में समझनी चाहिए। उम्र और दीक्षा पर्याय कम होने पर भी ज्ञान में श्रेष्ठता से वह गीतार्थ है तो वह दीपक के समान है। अतः उस बाल गीतार्थ की आज्ञा माननी चाहिए। और दीक्षा में बड़े तथा गुरु को विशेषरूप से मान्य करना चाहिए ॥९॥
उपदेशक गुरु (आचार्य) कैसे होने चाहिए? उसका स्वरूप कहते हैं,
पडिरूयो तेयस्सी, जुगप्पहाणागमो महुरवक्को । गंभीरो धिइमंतो, उवएसपरो अ आयरिओ ॥१०॥
शब्दार्थ - तीर्थंकर आदि के समान रूप वाले, तेजस्वी, युगप्रधान, मधुरवक्ता, गंभीर, धृतिमान और उपदेश देने वाले आचार्य होते हैं ।।१०।।
भावार्थ - आचार्य भगवान् आकृति और रूप में तीर्थंकर-गणधर आदि की तरह अतिसुन्दर कांति वाले होते हैं। वर्तमान काल में मुख्य और समग्र शास्त्र के विशेष पारगामी होते हैं, मधुर वचन बोलने वाले, गंभीर हृदय वाले, संतुष्टचित्त वाले और भव्य जीवों को उपदेश देकर सन्मार्ग (मोक्षमार्ग) पर चढ़ाने वाले होते हैं ॥१०॥
अपरिस्सावी सोमो, संगहसीलो अभिग्गहमई य । ___ अविकत्थणो अचवलो, पसंतहियओ गुरु होइ ॥११॥
शब्दार्थ - तथा अप्रतिश्रावी, सौम्य, संग्रहशील, अभिग्रह-बुद्धि वाले, मितभाषी, स्थिर स्वभावी और प्रशान्त हृदयवाले गुरु होते हैं ।।११।।
भावार्थ - अप्रतिश्रावी अर्थात् छिद्ररहित, पत्थर के (बरतन) बर्तन में
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