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तत्त्वाधिगम के उपाय
यह कि मात्र शास्त्र होने के कारण ही हर एक पुस्तक प्रमाण और ग्राह्य नहीं कही जा सकती। अनेक टीकाकारोंने भी मूलग्रन्थका अभिप्राय समझने में भूलें की हैं। अस्तु ।
हमें यह तो मानना ही होगा कि शास्त्र पुरुषकृत हैं। यद्यपि वे महापुरुष विशिष्ट ज्ञानी और लोक कल्याणकी सद्भावनावाले थे पर क्षायोपशमिकज्ञानवश या परम्परावश मतभेदकी गुंजायश तो हो ही .. सकती है । ऐसे अनेक मतभेद गोम्मटसार आदिमें स्वयं उल्लिखित हैं। अत: शास्त्र विषयक सम्यग्दर्शन भी प्राप्त करना होगा कि शात्रमें किस युगमें किस पात्रके लिए किस विवक्षासे क्या बात लिखी गई है ? उनका ऐतिहासिक पर्यवेक्षण भी करना होगा। दर्शनशास्त्रके ग्रन्थोंमें खण्डन मण्डन के प्रसंगमें तत्कालीन या पूर्वकालीन ग्रन्थोंका परस्परमें आदान-प्रदान पर्याप्त रूपसे हुआ है। अत: आत्म-संशोधकको जैन संस्कृतिकी शास्त्र विषयक दृष्टि भी प्राप्त करनी होगी। हमारे यहां गुणकृत प्रमाणता है। गुणवान् वक्ताके द्वारा कहा गया वह शास्त्र जिसमें हमारी मूलधारासे विरोध न आता हो, प्रमाण है।
इसीतरह हमें मन्दिर, संस्था, समाज, शरीर, जीवन, विवाह आदिका सम्यग्दर्शन करके सभी प्रबृत्तियोंकी पुनारचना आत्मसमत्वके आधारसे करनी चाहिए तभी मानव जातिका कल्याण और व्यक्तिकी मुक्ति हो सकेगी।
तत्त्वाधिगम के उपाय"ज्ञानं प्रमाणमात्मादेरुपायो न्यास इध्यते ।
नयो ज्ञातुरभिप्रायो युक्तितोऽर्थपरिग्रहः ॥"-लघीय० । अकलंकदेवने लघीयस्त्रय स्ववृत्तिमें बताया है कि जीवादि तत्त्वोंका सर्वप्रथम निक्षेपोंके द्वारा न्यास करना चाहिए, तभी प्रमाण और नयसे उनका यथावत् सम्यग्ज्ञान होता है । ज्ञान प्रमाण होता है । आ मादिको रखनेका उपाय न्यास है । ज्ञाताके अभिप्रायको नय कहते हैं। प्रमाण और नय ज्ञानात्मक उपाय है और निक्षेप बस्तुरूप है। इसीलिए निक्षेपोंमें नययोजना कषायपाहुडणि आदिमें की गई है कि अमुक नय अमुक निक्षेपको विषय करता है ।
निक्षेप-निक्षेपका अर्थ है रखना अर्थात् वस्तुका विश्लेषण कर उसकी स्थितिकी जितने प्रकारकी संभावनाएँ हो सकती हैं उनको सामने रखना ।जैसे 'राजाको बुलाओ' यहाँ राजा और बुलाना इन दो पदोंका अर्थबोध करना है। राजा अनेक प्रकारके होते हैं यथा 'राजा' इस शब्दको भी राजा कहते हैं, पट्टीपर लिखे हुए 'राजा' इन अक्षरोंको भी राजा कहते हैं, जिस व्यक्तिका नाम राजा है उसे भी राजा कहते हैं, राजाके चित्रको या मूर्तिको भी राजा कहते हैं, शतरंजके मुहरों में भी एक राजा होता है , जो आगे राजा होनेवाला है उसे भी लोग आजसे ही राजा कहन लगते हैं, राजाके ज्ञानको भी राजा कहते हैं, जो वर्तमान में शासनाधिकारी है उसे भी राजा कहते हैं। अतः हमें कौन राजा विवक्षित है? बच्चा यदि राजा मांगता है तो उस समय किस राजाकी आवश्यकता होगी. शतरंजके समय कौन राजा अपेक्षित होता है। अनेक प्रकारके राजाओंसे अप्रस्तुतका निराकरण करके विवक्षित राजाका ज्ञान करा देना निक्षेपका प्रयोजन है। राजाविषयक संशयका निराकरण कर विवक्षित राजाविषयक यथार्थबोध करा देना ही निक्षेपका कार्य है । इसी तरह बुलाना भी अनेक प्रकारका होता है। तो 'राजाको बुलाओ' इस वाक्यमें जो वर्तमान शासनाधिकारी है वह भावराजा विवक्षित है, न शब्दराजा, न ज्ञानराजा न लिपिराजा न मूर्ति राजा न भावीराजा आदि । पुरानी परम्परामें अपने विवक्षित अर्थका सटीक ज्ञान करानेकेलिए प्रत्येक शब्दके संभावित वाच्यार्थीको सामने रखकर उनका विश्लेषण करनेकी परिपाटी थी। आगमोंमें प्रत्येक शब्दका निक्षेप किया गया है । यहां तक क 'शेष' शब्द और 'च' शब्द भी निक्षेप विधिमें भुलाये नहीं गये है । शब्द ज्ञान और अर्थ तीन प्रकारसे व्यवहार चलते हैं। कहीं शब्दव्यवहारसे कार्य चलता
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