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४२६ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार
[ ५।२४ भाषारूप और अभाषारूप । भाषारूप शब्दके भी दो भेद हैं-अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक । अक्षरात्मक शब्द संस्कृत और असंस्कृतके भेदसे आर्य और म्लेच्छोंके व्यवहारका हेतु होता है। दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और पाँच इन्द्रिय जीवों में ज्ञानातिशयको प्रतिपादन करनेवाला अनक्षरात्मक शब्द है । एकेन्द्रियादिकी अपेक्षा दो इन्द्रिय आदिमें ज्ञानातिशय है । एकेन्द्रियमें तो ज्ञानमात्र है । अतिशय ज्ञानवाले सर्वज्ञके द्वारा एकेन्द्रियादिका स्वरूप बताया जाता है।
कोई लोग सर्वज्ञके शब्दोंको अनक्षरात्मक कहते हैं लेकिन उनका यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि अनक्षरात्मक शब्दसे अर्थका ज्ञान नहीं हो सकता । सब भाषात्मक शब्द पुरुषकृत होनेसे प्रायोगिक होते हैं।
अभाषात्मक शब्दके दो भेद हैं-प्रायोगिक और वैस्रसिक । प्रायोगिकके चार भेद हैं-तत, वितत, धन और सुपिर। चमड़े के ताननेसे पुष्कर, भेरी, दुन्दुभि आदि बाजोंसे उत्पन्न होने वाले शब्दको तत कहते हैं । तन्त्रीके कारण वीणा आदिसे होनेवाला शब्द वितत है। किन्नरोंके द्वारा कहा गया शब्द भी वितत है। घण्टा, ताल आदिसे उत्पन्न होने वाला शब्द धन है। बाँस, शंख आदिसे उत्पन्न होनेवाला शब्द सुषिर है। मेघ, विद्युत् आदिसे उत्पन्न होनेवाला शब्द वैस्रसिक है।
बन्धके दो भेद हैं-प्रायोगिक और वैनसिक । पुरुषकृत बन्धको प्रायोगिक कहते हैं। इसके दो भेद हैं-अजीवविषयक और जीवाजीवविषयक। लाख और काष्ठ श्रादिका सम्बन्ध अजीवविषयक प्रायोगिक बन्ध है । जीवके साथ कर्म और नोकर्मका बन्ध जीवाजीवविषयक प्रायोगिक बन्ध है। पुरुषकी अपेक्षाके बिना स्वभावसे ही होनेवाले बन्धको वैस्रसिक बन्ध कहते हैं। रूक्ष और स्निग्ध गुणके निमित्तसे विद्युत्, जलधारा,अग्नि, इन्द्रधनुष आदिका बन्ध वैरसिक है।
सौक्ष्म्यके दो भेद हैं-अन्त्य और आपेक्षिक । परमाणुओंमें अन्त्य सौम्य है । बेल, आँवला, बेर आदिमें आपेक्षिक सौक्ष्म्य है । बेलकी अपेक्षा आँवला सूक्ष्म है और आँवलेकी अपेक्षा बेर सूक्ष्म है।
- स्थौल्यके भी दो भेद है-अन्त्य और आपेक्षिक । अन्त्य स्थौल्य संसारव्यापी महास्कन्धमें है। बेर, आँवला, बेल आदिमें आपेक्षिक स्थौल्य है। बेरकी अपेक्षा आँवला स्थूल है और आँवलेकी अपेक्षा बेल स्थूल है। __संस्थानके दो भेद हैं-इत्थंलक्षण और अनित्थंलक्षण । जिस आकारका अमुकरूपमें निरूपण किया जा सके वह इत्थंलक्षण संस्थान है जैसे गोल, त्रिकोण, चतुष्कोण आदि ।
और जिस आकारके विषयमें कुछ कहा न जा सके वह अनित्थंलक्षण संस्थान है जैसे मेघ, इन्द्रधनुष आदिका आकार अनेक प्रकारका होता है।
भेद छह प्रकारका है—उत्कर, चूर्ण, खण्ड, प्रतर और अणुचटन। करोंत, कुल्हाड़ी आदिसे लकड़ी आदिके काटनेको उत्कर कहते हैं । जौ, गेहूँ आदिको पीसकर सतुआ आदि बनाना चूर्ण है । घटका फूट जाना खण्ड है। उड़द, मूंग आदिको दलकर दाल बनाना चूर्णिका है। मेघपटलोंका विघटन हो जाना प्रतर हैं । संतप्त लोहेके गोलेको घनसे कूटने पर जो आगके कण निकलते हैं वह अणुचटन है।
प्रकाशका विरोधी अन्धकार पुद्गलकी पर्याय है।
प्रकाश और आवरणके निमित्तसे छाया होती है। इसके दो भेद हैं--वर्णादिविकारात्मक और प्रतिबिम्बात्मक। गौरवर्णको छोड़कर श्यामवर्ण रूप हो जाना वर्णादि
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