________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
८.३-४] आठवाँ अध्याय
४६७ रस, बीज, पुष्प, फल आदिका मदिरा रूपसे परिणमन हो जाता है उसी प्रकार आत्मामें स्थित पुद्गलोंका भी योग और कषायके कारण कर्मरूपसे परिणमन हो जाता है।
सूत्र में 'स' शब्दका ग्रहण इस बातको बतलाता है कि बन्ध उक्त प्रकारका ही है अन्य गुण-गुणी आदि रूपसे बन्ध नहीं होता है। जिस स्थानमें जीव रहता है केवल उसी स्थानमें केवलज्ञानादिक नहीं रहते हैं किन्तु दूसरे स्थानमें भी उनका प्रसार होता है। यह नियम नहीं है कि जितने क्षेत्रमें गुणी रहे उतने ही क्षेत्रमें गुणको भी रहना चाहिये (?)।
बन्धके भेदप्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशास्तद्विधयः ॥ ३॥ प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध ये बन्धके चार भेद हैं।
प्रकृति स्वभावको कहते हैं। जैसे नीमकी प्रकृति कड़वी और गुडकी प्रकृति मीठी है । कर्मों का ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि स्वभावरूप होना प्रकृतिबन्ध है। अर्थका ज्ञान नहीं होने देना झानावरणकी प्रकृति है । अर्थका दर्शन नहीं होने देना दर्शनावरणकी प्रकृति है। सुख और दुःखका अनुभव करना वेदनीयकी प्रकृति है। तत्त्वोंका अश्रद्धान दर्शनमोहनीयकी प्रकृति है । असंयम चारित्र मोहनीयकी प्रकृति है। भवको धारण कराना आयु कर्मकी प्रकृति है। गति जाति आदि नामोंको देना नामकर्म की प्रकृति है । उच्च और नीच कुलमें उत्पन्न करना गोत्रकर्मकी प्रकृति है । दान, लाभ आदिमें विघ्न डालना अन्तराय की प्रकृति है।
___ आठों कर्मोंका अपने अपने स्वभावसे च्युत नहीं होना स्थितिबन्ध है। जैसे अजाक्षीर गोक्षीर आदि अपने माधुर्य स्वभावसे च्युत नहीं होते हैं उसी प्रकार ज्ञानावरणादि कर्म भी अर्थका अपरिज्ञान आदि स्वभावसे अपने अपने काल पर्यन्त च्युत नहीं होते हैं।
ज्ञानावरणादि प्रकृतियोंकी तीव्र,मन्द और मध्यमरूपसे फल देनेकी शक्ति (रस विशेष) को अनुभागबन्ध कहते हैं । अर्थात् कर्मपुद्गलोंकी अपनी अपनी फलदान शक्तिको अनु. भाग कहते हैं।
___ कर्म रूपसे परिणत पुद्गल स्कन्धोंके परमाणुओंकी संख्याको प्रदेश कहते हैं । प्रकृति और प्रदेश बन्ध योगके द्वारा और स्थिति तथा अनुभागबन्ध कषायके द्वारा होते हैं। ___ कहा भी है-"योगसे प्रकृति और प्रदेश बन्ध होते हैं तथा कषायसे स्थिति और अनुभाग बन्ध । अपरिणत-उपशान्त कषाय और क्षीणकषाय आदि गुणस्थानों में कषायोंका सद्भाव न रहने से बंध नहीं होता अर्थात् इनमें स्थिति और अनुभाग बंध नहीं होते।
___ प्रकृतिबन्धके भेदआयो ज्ञानदर्शनावरणवेदनीयमोहनीयायुर्नामगोत्रान्तरायाः ॥ ४ ॥
प्रकृतिबन्धके ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय ये आठ भेद हैं।
आयु शब्द कहीं उकारान्त भी देखा जाता है। जैसे “वितरतु दीर्घमायु कुरुताद्गुरुतामवतादहर्निशम्" इस वाक्यमें । जिस प्रकार एक बार किया हुआ भोजन रस, रुधिर, मांस आदि अनेक रूपसे परिणत हो जाता है उसी प्रकार एक साथ बन्धको प्राप्त हुए कर्म परमाणु भी ज्ञानावरणादि अनेक भेद रूप हो जाते हैं । सामान्यसे कर्म एक ही है । पुण्य और पाप की अपेक्षा कर्मके दो भेद हैं। प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशके भेदसे कर्मके चार
For Private And Personal Use Only