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९।१२-१७] नवम अध्याय
४९१ प्रमेयकमलमार्तण्ड में एकादश शब्दका यह अर्थ किया गया है-एकेन अधिका न दश इति एकादश अर्थात् एक+अ+दश एक और दश ( ग्यारह ) परीषह जिनेन्द्रके नहीं होते हैं।
बादरसाम्पराये सर्वे ॥१२॥ बादरसाम्पराय अर्थात् स्थूल कषायवाले छठवें, सातवें, आठवें और नवमें इन चार गुणस्थानोंमें सम्पूर्ण परीषह होते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि सामायिक, छेदोपस्थापना और परिहारविशुद्धि इन तीन चारित्रोंमें सब परीषह होते हैं।
कौन परीषह किस कर्मके उदयसे होता है ?
ज्ञानावरणे प्रज्ञाज्ञाने ॥ १३ ॥ ज्ञानावरण कर्मके उदयसे प्रज्ञा और अज्ञान ये दो परीषह होते हैं।
प्रश्न-ज्ञानावरण कर्मके उदयसे अज्ञानपरिषह होता है यह तो ठीक है किन्तु प्रज्ञापरीषह भी ज्ञानावरणके उदयसे होता है यह ठीक नहीं है। क्योंकि प्रज्ञापरीषह अर्थात् ज्ञानका मद ज्ञानावरणके विनाश होनेपर होता है अतः वह ज्ञानावरणके उदयसे कैसे हो सकता है ?
. उत्तर-प्रज्ञाक्षायोपशमिकी है अर्थात् मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरणके क्षयोपशम होनेपर और अवधिज्ञानावरण आदिके सद्भाव होनेपर प्रज्ञाका मद होता है। सम्पूर्ण ज्ञानावरणके क्षय हो जानेपर ज्ञानका मद नहीं होता है। अतः प्रज्ञापरीषह ज्ञानावरणके उदयसे ही होता है।
दर्शनमोहान्तराययोरदर्शनालाभौ ॥ १४ ॥ दर्शनमोहनीयके उदयसे अदर्शनपरीषह और अन्तराय कर्म के उदयसे अलाभ परीषह होता है। चारित्रमोहे नाग्न्यारतिस्त्रीनिषद्याक्रोशयाचनासत्कारपुरस्काराः ॥ १५॥
चारित्र मोहनीयके उदयसे नाग्न्य, अरति, स्त्री, निषद्या, आक्रोश, याचना और सत्कारपुरस्कार ये सात परीषह होते हैं । ये परीषह पुंवेद आदिके उदयके कारण होते हैं। मोहके उदयसे प्राणिपीड़ा होती है और प्राणिपीड़ाके परिहारके लिये निषद्या परीषह होता है अतः यह भी मोहके उदयसे होता है ।
वेदनीये शेषाः ॥ १६॥ वेदनीय कर्मके उदयसे क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दशमशक, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श और मल ये ग्यारह परीषह होते हैं। एक साथ एक जीवके होनेवाले परीपहोंकी संख्या
एकादयो भाज्या युगपदेकस्मिन्नेकोनविंशतिः ॥ १७ ॥ एक साथ एक जीवके एकको आदि लेकर उन्नीस परोषह तक हो सकते है। एक जीवके एक कालमें अधिकसे अधिक उन्नीस परीषह हो सकते हैं। क्योंकि शीत
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