Book Title: Tattvartha Vrutti
Author(s): Mahendramuni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 621
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५१० तत्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [ १०९ देव आदि के द्वारा किया गया अन्य मुनियोंका संहरण परकृत संहरण है। देव आदि पूर्व ara कारण किसी मुनिको उठाकर समुद्र आदि में डाल देते हैं । इसीको संहरण या हरण करना कहते हैं । जिस क्षेत्र में जन्म लिया हो उसी क्षेत्र से सिद्ध होनेको जन्मसिद्ध कहते हैं । किसी दूसरे क्षेत्र में जन्म लेकर संहरण से अन्य क्षेत्र में सिद्ध होनेको संहरण सिद्ध कहते हैं । कालकी अपेक्षा निश्चयनयसे जीव एक समय में सिद्ध होता है। व्यवहारनय से जन्मकी अपेक्षा सामान्य रूप से उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालमें उत्पन्न हुआ जीव सिद्ध होता है और विशेषरूप से अवसर्पिणी कालके तृतीय कालके अन्त में और चौथे काल में उत्पन्न हुआ जीव सिद्ध होता है, और चौथे कालमें उत्पन्न हुआ जीव पाँचवें कालमें सिद्ध होता है । लेकिन पाँचवें काल में उत्पन्न हुआ जीव पाँचवें काल में सिद्ध नहीं होता है । तथा अन्य कालों में उत्पन्न हुआ जीव भी सिद्ध नहीं होता है। संहरणकी अपेक्षा सर्व उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालों में सिद्धि होती है । गतिकी अपेक्षा सिद्धगति या मनुष्यगतिमें सिद्धि होती है। लिङ्गकी अपेक्षा निश्चयनयसे वेद के अभाव से सिद्धि होती है । व्यवहारनयसे तीनों भाववेदोंसे सिद्धि होती है लेकिन द्रव्यवेदकी अपेक्षा पुंवेदसे ही सिद्धि होती है । अथवा निर्ग्रन्थ लिङ्ग या समन्थलिङ्गसे सिद्धि होती है ( भूतपूर्वनयकी अपेक्षा ) । तीर्थकी अपेक्षा कोई तीर्थंकर होकर सिद्ध होते हैं और कोई सामान्य केवली होकर सिद्ध होते हैं । सामान्यकेवली भी या तो किसी तीर्थंकर के रहने पर सिद्ध होते हैं अथवा तीर्थंकर के मोक्ष चले जानेके बाद सिद्ध होते हैं। चारित्रकी अपेक्षा यथाख्यातचारित्र से अथवा पाँचों चारित्रोंसे सिद्धि होती है । कोई स्वयं संसार से विरक्त होकर ( प्रत्येकबुद्ध होकर ) सिद्ध होते हैं और कोई दूसरे के उपदेश से विरक्त होकर ( बोधितबुद्ध होकर ) सिद्ध होते हैं । arrant अपेक्षा निश्चय नयसे केवलज्ञान से सिद्धि होती है और व्यवहारनयसे मति, श्रुत आदि दो, तीन या चार ज्ञानोंसे भी सिद्धि होती है। इसका तात्पर्य यह है कि केवलज्ञान होने से पहिले व्यक्ति के दो, तीन या चार ज्ञान हो सकते हैं । शरीरकी ऊँचाईको अवगाहना कहते हैं । अवगाहना के दो भेद हैं- उत्कृष्ट और जघन्य । सिद्ध होने वाले जीवोंकी उत्कृष्ट अवगाहना सवा पाँच सौ धनुष है और जघन्य अवगाहना साढ़े तीन हाथ है। जो जीव सोलहवें वर्ष में सात हाथ शरीर वाला होता है वह गर्भ से आठवें वर्ष में साढ़े तीन हाथ शरीर वाला होता है और उस जीवकी मुक्ति होती है । मध्यम अवगाहना अनन्त भेद हैं। यदि जीव लगातार सिद्ध होते रहें तो जघन्य दो समय और उत्कृष्ट आठ सययका अनन्तर होगा अर्थात् इतने समय तक सिद्ध होते रहेंगे । और यदि सिद्ध होने में व्यवधान पड़ेगा तो जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह मासका अन्तर होगा। संख्या की अपेक्षा जघन्यसे एक समय में एक जीव सिद्ध होता है और उत्कृष्ट से एक समय में एक सौ आठ जीव सिद्ध होते हैं । क्षेत्र आदिमें सिद्ध होनेवाले जीवोंकी परस्पर में कम और अधिक संख्याको अल्पबहुत्व कहते हैं । क्षेत्रकी अपेक्षा अल्पबहुत्व - निश्चय नयकी अपेक्षा सब जीव सिद्ध क्षेत्र में सिद्ध होते हैं अतः उनमें अल्पबहुत्व नहीं है । व्यवहार नयकी अपेक्षा उनमें अल्पबहुत्व इस प्रकार है । For Private And Personal Use Only

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