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५०२ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार
[ ९।४५ करनेवाले, श्रुतज्ञानोपयोगवाले, अर्थ व्यजन और योगकी संक्रान्ति रहित, क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती मुनिके एकत्ववितर्क शुक्लध्यान होता है। एकत्ववित्तध्यानवाला मुनि उस अवस्थासे नीचेकी अवस्थामें नहीं आता है।
एकत्ववितक ध्यानके द्वारा जिसने घातिया कोका नाश कर दिया है, जिसके केवल ज्ञानरूपी सूर्यका उदय हो गया है ऐसे तीन लोकमें घूज्य तीर्थकर, सामान्यकेवली अथवा गणधर केवली उत्कृष्ट कुछ कम एक पूर्व कोटी भूमण्डलमें बिहार करते हैं। जब अन्तर्मुहूर्त
आयु शेष रह जाती है और वेदनीय, नाम और गोत्र कर्मों की स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त रहती है तब वे सम्पूर्ण मन और वचन योग तथा बादर काययोगको छोड़कर सूक्ष्म काययोगमें स्थित होकर सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यानको करते हैं। और जब वेदनीय नाम
और गोत्र कर्म की स्थिति आयु कर्मसे अधिक होती है तब वे चार समयों में दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण समुद्भातके द्वारा आत्माके प्रदेशों को बाहर फैलाते हैं और पुनः चार समयों में आत्माके प्रदेशोंको समेट कर अपने शरीरप्रमाण करते हैं। ऐसा करनेसे वेदनीय नाम और गोत्रकी स्थिति आयु कर्मके बराबर हो जाती है। इस प्रकार तीर्थंकर आदि दण्ड कपाट आदि समुद्धात करके सूक्ष्मकाययोगके आलम्बनसे सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यानको करते हैं।
इसके अनन्तर व्युपरतक्रियानिवर्ति ध्यान होता है । इसका दूसरा नाम समुच्छिन्नक्रियानिवर्ति भी है। इस ध्यानमें प्राणापानक्रियाका तथा मन,वचन और काययोगके निमित्तसे होने वाले आत्मा के प्रदेश परिस्पंदनका सम्पूर्ण विनाश हो जानेसे इसको समुच्छन्नक्रियानिवर्ति कहते हैं। इस ध्यानको करनेवाला मुनि सम्पूर्ण आस्रव और बन्धका निरोध करता है, सम्पूर्ण ज्ञान, दर्शन और यथाख्यातचारित्र को प्राप्त करता है और ध्यान रूपी अग्निके द्वारा सर्व कर्म मलका नाश करके निर्वाणको प्राप्त करता है।
सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और व्युपरतक्रियानिवति ध्यानमें यद्यपि चिन्ताका निरोध नहीं है फिर भी उपचारसे उनको ध्यान कहते हैं। क्योंकि वहाँ भी अघातिया कर्मों के नाश करने के लिये योगनिरोध करना पड़ता है । यद्यपि केवलीके ध्यान करने योग्य कुछ भी नहीं है फिर भी उनका ध्यान अधिक स्थितिवाले कोंकी सम स्थिति करनेके लिये होता है। ध्यानसे प्राप्त होने वाला निर्वाण सुख है । मोहनीय कर्म के क्षय से सुख,दर्शनावरणके क्षयसे अनन्त दर्शन,ज्ञानावरण के क्षयसे अनन्तज्ञान, अन्तरायके क्षयसे अनन्तवीर्य,आयुके क्षयसे जन्म-मरणका नाश, नामके क्षयसे अमूर्तत्व, गोत्रके क्षयसे नीच ऊँच कुलका क्षय और वेदनीयके क्षयसे इन्द्रिय जन्य अशुभका नाश होता है। ___एक इष्ट वस्तुमे जो स्थिर बुद्धि होती है उसको ध्यान कहते हैं। पार्टी, रौद्र और धर्म्य ध्यानोंकी अपेक्षा जो चञ्चल मति होती है उसको चित्त, भावना, अनुप्रेक्षा, चिन्तन, ख्यापन आदि कहते हैं।
निर्जरामें न्यूनाधिकताका वर्णनसम्यग्दृष्टिश्रावकविरतानन्तवियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशान्तमोह
क्षयकक्षीणमोहजिनाः क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जराः ॥ ४५ ।। ..
सम्यग्दृष्टि, श्रावक, विरत, अनन्तानुबन्धीका विसंयोजक, दर्शनमोहका क्षय करने वाला, चारित्रमोहका उपशम करने वाला, उपशान्तमोहवाला, क्षपक-क्षीणमोह और जिनेन्द्र भगवान् इन सबके क्रमसे असंख्यातगुणी निर्जरा होती है।
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