Book Title: Tattvartha Vrutti
Author(s): Mahendramuni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 612
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ९।४२-४४] नवम अध्याय ५०१ होते हैं तथा वितर्क और वीचार सहित होते हैं। सम्पूर्ण श्रुतज्ञानका धारी जीव ही इन ध्यानोंका प्रारम्भ करता है। अवीचारं द्वितीयम् ॥ ४२ ॥ लेकिन दूसरा शुक्लध्यान वीचाररहित है। अतः पहिले शुक्ल ध्यानका नाम पृथक्स्ववितर्कवीचार है और द्वितीय शुक्लध्यानका नाम एकत्ववितर्कावीचार है । वितर्कका लक्षण वितर्कः श्रुतम् ॥ ४३॥ श्रुतज्ञानको वितर्क कहते हैं । वितर्कका अर्थ है विशेषरूपसे तर्क या विचार करना। प्रथम और द्वितीय शुक्लध्यान श्रुतज्ञानके बलसे होते हैं अतः दोनों ध्यान सवितर्क हैं। वीचारका लक्षणवीचारोऽर्थव्यञ्जनयोगसङ्क्रान्तिः ॥ ४४ ॥ अर्थ, व्यञ्जन और योगको संक्रान्ति ( परिवर्तन ) को वीचार कहते हैं। ध्यान करने योग्य पदार्थ ( द्रव्य या पर्याय) को अर्थ कहते हैं । वचन या शब्द को व्यञ्जन कहते हैं । और मन, वचन और कायके व्यापारको योग कहते हैं। संक्रान्तिका अर्थ है परिवर्तन। अर्थसंक्रान्ति-द्रव्यको छोड़कर पर्यायका ध्यान करना और पर्यायको छोड़कर द्रव्यका ध्यान करना इस प्रकार बार बार ध्येय अर्थमें परिवर्तन होना अर्थसंक्रान्ति है। व्यञ्जनसंक्रान्ति-श्रुतज्ञानके किसी एक शब्दको छोड़कर अन्य शब्दका आलम्बन लेना और उसको छोड़कर पुनः अन्य शब्दको ग्रहण करना व्यञ्जनसंक्रान्ति है। योगसंक्रान्ति-काय योग को छोड़कर मनोयोग या वचनयोगको ग्रहण करना और इनको छोड़कर पुनः काययोगको ग्रहण करना योगसंक्रान्ति है। प्रश्न-इस प्रकारकी संक्रान्ति होनेसे ध्यानमें स्थिरता नहीं रह सकती है और स्थिरता न होनेसे वह ध्यान नहीं हो सकता क्योंकि एकाग्रचिन्तानिरोधका नाम ध्यान है। उत्तर-ध्यानकी सन्तानको भी ध्यान कहते हैं। द्रव्यकी सन्तान पर्याय है। एक शब्दकी सन्तान दूसरा शब्द है। एक योगकी सन्तान दूसरा योग है। अतः एक सन्तानको छोड़कर दूसरी सन्तानका ध्यान करनेसे वह ध्यान एक ही रहेगा। एक सन्तानके ध्यानसे दूसरी सन्तानका ध्यान भिन्न नहीं है । अतः सक्रान्ति होनेपर भी ध्यानम स्थिरता मानी जायगी। गुप्त आदिमें अभ्यस्त, द्रव्य और पर्याय की सूक्ष्मताका ध्यान करनेवाले, वितर्ककी सामर्थ्यको प्राप्तकर अर्थ और व्यञ्जन तथा काययोग और वचनयोगको पृथक् पृथक रूपसे संक्रमण करनेवाले मन द्वारा जैसे काई असमर्थ बालक अतीक्ष्ण कुठारसे वृक्षको काटता है उसी प्रकार मोहनीय कर्मकी प्रकृतियोंका उपशम या क्षय करनेवाले मुनिके पृथक्त्ववितर्क शुक्लध्यान होता है। मोहनीय कर्मका समूल नाश करनेकी इच्छा करनेवाले, अनन्तगुणविशुद्धिसहित योगविशेषके द्वारा ज्ञानावरणकी सहायक प्रकृतियों के बन्धका निरोध और स्थितिका ह्रास For Private And Personal Use Only

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