Book Title: Tattvartha Vrutti
Author(s): Mahendramuni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 601
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४९० तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [९।११ तृणस्पर्श, मल, प्रज्ञा और अज्ञान । छमका अर्थ है ज्ञानावरण और दर्शनावरण । ज्ञानावरण और दर्शनावरणका उदय होने पर भी जिसको अन्तर्मुहूर्तमें केवलज्ञान होनेवाला हो उसको छगस्थ वीतराग ( बारहवें गुणस्थानवर्ती मुनि) कहते हैं । प्रश्न-छद्मस्थवीतराग गुणस्थानमें मोहनीय कर्मका अभाव है इसलिये मोहनीय कर्मके निमित्तसे होनेवाले आठ परीषह यहाँ नहीं होते हैं यह तो ठीक है लेकिन सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें तो मोहनीयका सद्भाव रहता है अतः वहाँ मोहनीयके निमित्तसे होनेवाले नाग्न्य आदि आठ परीषहोंका सद्भाव और बतलाना चाहिये। उत्तर-सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें मोहनीयकी सब प्रकृतियोंका उदय नहीं होता किन्तु संज्वलन लोभकषायका ही उदय रहता है और वह उदय भी सूक्ष्म होता है न कि बादर । अतः यह गुणस्थान भी छद्मस्थवीतराग गुणस्थानके समान ही है। इसलिये इस गुणस्थानमें भी चौदह ही परीषह होते हैं। प्रश्न-छद्मस्थवीतराग गुणस्थानमें मोहनीयके उदयका अभाव है और सूक्ष्मसाम्परायमें मोहनीयके उदयकी मन्दता है इसलिए दोनों गुणस्थानोंमें क्षुधा आदि चौदह परीषहोंका अभाव ही होगा, वहाँ उनका सहना कैसे संभव है ? उत्तर-यद्यपि उक्त दोनों गुणस्थानों में चौदह परीषह नहीं होते हैं किन्तु उन परीषहोंके सहन करनेकी शक्ति होनेके कारण वहाँ चौदह परीषहोंका सद्भाव बतलाया गया है । जैसे सर्वार्थसिद्धिके देव सातवें नरक तक गमन नहीं करते हैं फिर भी वहाँ तक गमन करनेकी शक्ति होनेके कारण उनमें सातवें नरक पर्यन्त गमन बतलाया है। एकादश जिने ॥ ११ ॥ सयोगकेवली नामक तेरहर्वे गुणस्थानमें ग्यारह परीषह होते हैं। पूर्वोक्त चौदह परीघहोंमेंसे अलाभ, प्रज्ञा और अज्ञानको छोड़कर शेष ग्यारह परीषहाँका सद्भाव वेदनीय कर्मके सद्भावके कारण बतलाया गया है। प्रश्न-तेरहवे गुणस्थानमें मोहनीयके उदयके अभावमें क्षुधा आदिकी वेदना नहीं हो सकती है फिर ये परीषह कैसे उत्पन्न होते हैं ? उत्तर-तेरहवें गुणस्थानमें क्षुधा आदिकी वेदनाका अभाव होने पर भी वेदनीय द्रव्य कर्मके सद्भावके कारण वहाँ ग्यारह परीषहोंका सद्भाव उपचारसे समझना चाहिये। जैसे ज्ञानावरण कर्मके नष्ट हो जानेसे जिनेन्द्र भगवान्में चिंताका निरोध करने स्वरूप ध्यान नहीं होता है फिर भी चिंताको करने वाले कर्मके अभाव (निरोध) हो जानेसे उपचारसे वहाँ ध्यानका सद्भाव माना गया है। यही बात वहाँ परोषहोंके सद्भायके विषयमें है। यदि केवली भगवान्में क्षुधा आदि वेदनाका सद्भाव माना जाय तो कवलाहारका भी प्रसङ्ग उनके होगा। लेकिन ऐसा मानना ठीक नहीं है। क्योंकि अनन्त सुखके उदय होने से जिनेन्द्र भगवान के कवलाहार नही होता है। कवलाहार वही करता है जो क्षुधाके क्लेशसे पीड़ित होता है। यद्यपि जिनेन्द्र के वेदनीयके उदयका सद्भाव रहता है लेकिन वह मोहनीयके अभावमें अपना कार्य नहीं कर सकता जैसे सेनापतिके अभाव में सेना कुछ काम नहीं कर सकती। ___ अथवा उक्त सूत्र में न शब्द का अध्याहार करना चाहिये । न शब्दका अध्याहार करनेसे “एकादश जिने न" ऐसा सूत्र होगा जिसका अर्थ होगा कि जिनेन्द्र भगवान के ग्यारह परीषह नहीं होते हैं। For Private And Personal Use Only

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