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तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार जैसे यहाँ काक शब्द उपलक्षण होनेसे बिल्ली आदिका भी बोध कराता है इसी प्रकार मशक शब्द भी उपलक्षण होनेसे बिच्छू, चीटी आदि प्राणियोंका बोधक है।
६ नाग्न्यपरीषह-नग्नता एक विशिष्ट गुण है जिसको कामासक्त पुरुष धारण नहीं कर सकते हैं । नग्नता मोक्षका कारण है और सब प्रकारके दोषोंसे रहित है । परमस्वातन्त्र्य का कारण है। पराधीनता लेशमात्र नहीं रहती । जो मुनि इस प्रकारकी नग्नताको धारण करते हुए मनमें किसी प्रकारके विकारको उत्पन्न नहीं होने देता उसके नाग्न्यपरीषहजय होता है।
७ अरतिपरीषह-जो मुनि इन्द्रियों के विषयोंसे विरत रहता है,सङ्गीत आदिसे रहित शून्य गृह आदिमें निवास करता है, स्वाध्याय आदिमें हो रति करता है उनके अरतिपरी. षहजय होता है।
८ स्त्रीपरीषह--जो मुनि स्त्रियोंके भ्रूविलास, नेत्रविकार, शृङ्गार आदिको देखकर मनमें किसी प्रकारका विकार उत्पन्न नहीं होने देता, कछवेके समान इन्द्रिय और मनका संयमन करता है उसके स्त्रीपरोषहजय होता है।।
९चर्यापरीषह-गुरुजनकी आज्ञासे और देशकालके अनुसार गमन करने में कंकण, कांटे आदिके द्वारा उत्पन्न हुई बाधाको जो मुनि शान्तिपूर्वक सहन करता है और पूर्व अवस्थामें भोगे हुए वाहन आदिका स्मरण नहीं करता है उसके चर्यापरीषहजय होता है।
१० निषद्यापरीषह-जो मुनि श्मशान, वन, पर्वतोंकी गुफा आदिमें निवास करता है और नियतकालपर्यन्त ध्यानके लिये निषद्य (आसन ) को स्वीकार करता है, लेकिन देव, तिर्यञ्च, मनुष्य और अचेतन पदार्थों के उपसर्गों के कारण जो वीरासन आदिसे च्युत नहीं होता है और न मन्त्र आदिके द्वारा किसी प्रकारका प्रतीकार ही करता है उसके निषद्यापरीषहजय होता है।
११ शय्यापरीषह-जो मुनि ऊँची-नीची, कठोर कंकड़ बालू आदिसे युक्त भूमि पर एक करवटसे लकड़ी पत्थरकी तरह निश्चल सोता है, भूत प्रेत आदिके द्वारा अनेक उपसर्ग किये जाने पर भी शरीरको चलायमान नहीं करता, कभी ऐसा विचार नहीं करता कि 'इस स्थानमें सिंह आदि दुष्ट प्राणी रहते हैं अतः इस स्थानसे शीघ्र चले जाना चाहिये, रात्रिका अन्त कब होगा इत्यादि उस मुनिके शय्यापरोषहजय होता है।
१२ आक्रोशपरोषह--जो मुनि दुष्ट और अज्ञानी जनोंके द्वारा कहे गये कठोर और असत्य वचनोंको सुनकर हृदयमें किचिन्मात्र भी कषायको नहीं करता है और प्रतिकार करनेकी सामर्थ्य होनेपर भी प्रतिकार करनेका विचार भी नहीं करता है उस मुनिके आक्रोशपरीषहजय होता है।
१३ वधपरीषह-जो मुनि नानाप्रकार के तलवार आदि तीक्ष्ण शत्रों के द्वारा शरीरपर प्रहार किये जाने पर भी प्रहार करनेवालों से द्वेष नहीं करता है किन्तु यह विचार करता है कि यह मेरे पूर्व कर्मका ही फल है और शस्त्रोंके द्वारा दुःखोंके कारण शरीरका ही विघात हो सकता है आत्माका विघात त्रिकालमें भी संभव नहीं है, उस मुनिके वधपरीषहजय होता है।
१४ याचनापरीषह-तपके द्वारा शरीरके सूख जानेपर अस्थिपञ्जरमात्र शरोर शेष रहने पर भी जो मुनि दीनवचन, मुखवैवर्ण्य आदि आदि संज्ञाओंके द्वारा भोजन आदि पदार्थीकी याचना नहीं करता है उसके याचनापरीषहजय होता है।
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