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तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार
[ ९१७ .. ८ संवर भावना--कर्मोंका संवर हो जानेसे जीवको दुःख नहीं होता है । जैसे नावमें छेद हो जाने पर उसमें जल भरने लगता है और नाव डूब जाती है। लेकिन छेदको बन्द कर देने पर नाव अपने स्थान पर पहुँच जाती है। उसी प्रकार कर्मोंका आगमन रोक देने पर कल्याण मार्गमें कोई बाधा नहीं आ सकती है इस प्रकार विचार करना संवरानुप्रेक्षा है।
९ निर्जरा भावना-निर्जरा दो प्रकारसे होती है एक आबुद्धिपूर्वक और दूसरी कुशलमूलक । नरकादि गतियोंमें फल दे चुकनेपर कर्मोकी जो निर्जरा होती है वह अबुद्धिपूर्वक या अकुशलमूलक निर्जरा है। जो तप या परीषहजयके द्वारा कर्मोंकी निर्जरा होती है वह अबुद्धिपूर्वक या कुशलमूलक निर्जरा है। इस प्रकार निर्जराके गुण और दोषोंका विचार करना निर्जरानुप्रेक्षा है । ऐसा विचार करनेसे जीवकी कर्मोंकी निर्जराके लिये प्रवृत्ति होती है।
१० लोकभावना- अनन्त लोकाकाशके ठीक मध्यमें चौदह राजू प्रमाण लोक है। इस लोकके स्वभाव, आकार आदिका चिंतवन करना लोकानुप्रेक्षा है। लोकका विचार करनेसे तत्वज्ञानमें विशुद्धि होती है।
११ बोधिदुर्लभभावना-एक निगोदके शरीरमें सिद्धोंके अनन्तगुने जीव रहते है और समस्त लोक स्थावर प्राणियोंसे ठसाठस भरा हुआ है। इस लोकमें त्रस पर्याय पाना उसी प्रकार दुर्लभ है जिस प्रकार समुद्र में गिरी हुई वनको कणिकाको पाना । त्रसोंमें भी पञ्चेन्द्रिय होना उसी प्रकार दुर्लभ है जिस प्रकार गुणों में कृतज्ञताका होना। पञ्चेन्द्रियों में भी मनुष्य पर्यायको पाना उसीप्रकार दुर्लभ है जिसप्रकार मार्गमें रत्नांका ढेर पाना । एक बार मनुष्य पर्याय समाप्त हो जाने पर पुनः मनुष्य पर्यायको पाना अत्यन्त दुर्लभ है जिस प्रकार वृक्षके जल जाने पर उस राखका वृक्ष हो जाना अत्यन्त दुर्लभ है । मनुष्य जन्म मिल जाने पर भी सुदेशका पाना दुर्लभ है । इसी प्रकार उत्तम कुल, इन्द्रियों की पूर्णता, सम्पत्ति, आरोग्यता ये सब बातें उत्तरोत्तर दुर्लभ हैं। इन सबके मिल जाने पर भी यदि जैन धर्मकी प्राप्ति नहीं हुई तो मनुष्य जन्मका पाना उसी प्रकार निरर्थक है जैसे विना नेत्रोंके मुखका होना। जो जैन धर्मको प्राप्त करके भी विषय सुखोंमें लीन रहता है वह पुरुष राखके लिए चन्दनके वृक्षको जलाता है । विषय-सुखसे विरक्त हो जाने पर भी समाधिका होना अत्यन्त दुर्लभ है । समाधिके होने पर ही विषय-सुखसे विरक्त स्वरूप बोधिलाभ सफल होता है। इस प्रकार बोधि (ज्ञान) की दुर्लभताका विचार करना बोधि दुर्लभानुप्रेक्षा है। ऐसा विचार करनेसे जीवको प्रमाद नहीं हाता।
१२ धर्मभावना-धर्म वह है जो सर्वज्ञ वीतराग द्वारा प्रणीत हो, सर्व जीवों पर दया करने वाला हो, सत्ययुक्त हो, विनयसम्पन्न हो, उत्तम क्षमा, ब्रह्मचर्य, उपशम आदिसे सहित हो जिसके सेवनसे विषयोंसे व्यावृत्ति हो और निष्परिग्रहता हो। इस प्रकारके धर्मको न पानेके कारण जीव अनादिकाल तक संसारमें भ्रमण करते हैं और धर्मकी प्राप्ति हो जाने पर जीव स्वर्ग आदिके सुखोंको भोगकर मोक्षको प्राप्त करते हैं । इस प्रकार धर्मके स्वरूपका विचार करना धर्मानुप्रेक्षा है । इस प्रकार विचार करनेसे जीवका धर्म में गाढ़ स्नेह होता है।
इस प्रकार बारह भावनाओं के होने पर जीव उत्तम क्षमा आदि धर्मोको धारण करता है और परीषहोंको सहन करता है अतः धर्म और परीषहोंके बीचमें अनुप्रेक्षाओंका वर्णन किया है।
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