________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार
[ ९।२९-२२ आभ्यन्तर तपोंके उत्तर भेद
नवचतुर्दशपञ्चद्वि भेदा यथाक्रमम् ॥ २१ ॥ क्रमसे प्रायश्चितके नव, विनय के चार, वैयावृत्त्य के दश, स्वाध्यायके पाँच और व्युत्सर्गके दो भेद होते हैं।
- प्रायश्चित्तके नव भेदआलोचनप्रतिक्रमणतदुभयविवेकव्युत्सर्गतपश्छेदपरिहारोपस्थापनाः ॥२२॥
आलोचन, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहार और उपस्थापना-ये प्रायश्चित्त के नव भेद हैं।
एकान्त में बैठे हुए, प्रसन्न, दोष, देश और कालको जाननेवाले गुरुके सामने निष्कपट भावसे विनगसहित और भगवती आराधनामें बतलाये हुए दश प्रकार के दोषोंसे रहित विधिसे अपने दोषोंको प्रगट कर देना आलोचना है।
आलोचनाके दश दोष इस प्रकार हैं-१ गुरुमें अनुकम्पा उत्पन्न करके आलोचना करना आकम्पित दोष है। २ वचनोंसे अनुमान करके आलोचना करना अनुमानित दोष है। ३ लोगोंने जिस दोषको देख लिया हो उसीकी आलोचना करना दृष्टदोष है। ४ मोटे या स्थूल दोषोंकी ही आलोचना करना बादरदोष है। ५ अल्प या सूक्ष्म दोष की ही आलोचना करना सूक्ष्म दोष है। ६ किसीके द्वारा उसके दोषको प्रकाशित किये जानेपर कहना कि जिस प्रकारका दोष इसने प्रकाशित किया है उसी प्रकारका दोष मेरा भी है। इस प्रकार गुप्त दोष की आलोचना करना प्रच्छन्न दोष है । ७ कोलाहलके बीच में आलोचना करना जिससे गुरु ठीक तरहसे न सुन सके सो शब्दाकुलित दोष है। ८ बहुत लोगोंके सामने आलोचना करना बहुजन दोष है। ९ दोषों को नहीं समझनेवाले गुरुके पास आलोचना करना अव्यक्तदोष है। १० ऐसे गुरुके पास उस दोषकी आलोचना करना जो दोष उस गुरुमें भी हो, यह तत्सेवी दोष है।
यदि पुरुष आलोचना करे तो एक गुरु और एक शिष्य इस प्रकार दोके आश्रयसे आलोचना होती है। और यदि स्त्री आलोचना करें तो चन्द्र, सूर्य, दीपक आदिके प्रकाशमें एक गुरु और दो त्रियाँ अथवा दो गुरु और एक स्त्री इस प्रकार तीनके होनेपर आलोचना होती है । आलोचना नहीं करनेवालेको दुर्धरतप भी इच्छित फलदायक नहीं होता है।
अपने दोषोंको उच्चारण करके कहना कि मेरे दोष मिथ्या हो प्रतिक्रमण है। गुरुकी आज्ञासे प्रतिक्रमण शिष्य को ही करना चाहिये और आलोचनाको देकर आचार्यको प्रतिक्रमण करना चाहिये।
शुद्ध होनेपर भी अशुद्ध होनेका संदेह या विपर्यय हो अथवा अशुद्ध होनेपर भी जहाँ शुद्धता का निश्चय हो वहाँ आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों करना चाहिये इसको तदुभय कहते हैं। जिस वस्तु के न खानेका नियम हो उस वस्तुके बर्तन या मुखमें भा जाने पर अथवा जिन वस्तुओंसे कषाय आदि उत्पन्न हो उन सब वस्तुओंका त्याग कर देना विवेक है । नियतकाल पर्यन्त शरीर, वचन और मनका त्याग कर देना व्युत्सर्ग है। उपवास आदि छह प्रकारका बाह्यतप तप प्रायश्चित्त है। दिन, पक्ष, मास आदि दीक्षाका छेद कर देना छेद प्रायश्चित्त है । दिन, पक्ष, मास आदि नियत काल तक संघसे पृथक् कर देना परिहार है । महाव्रतोंका मूलच्छेद करके पुनः दीक्षा देना उपस्थापना प्रायश्चित्त है।
For Private And Personal Use Only