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९।२७-२९]
नवम अध्याय
४९७
ध्यानका स्वरूपउत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमान्तर्मुहूर्तात् ॥२७॥ चित्तको अन्य विकल्पोंसे हटाकर एक ही अर्थमें लगानेको ध्यान कहते हैं। ध्यान उत्तमसंहनन वालोंके अन्तर्मुहूर्त तक हो सकता है।
वनवृषभनाराच,वअनाराच और नाराच ये तीन उत्तम संहनन कहलाते हैं । ध्यानके आलम्बन भूत द्रव्य या पर्याय को 'अन' और एक 'अन' प्रधान वस्तुको 'एकाग्र' कहते हैं। एकाग्रमें चिन्ताका निरोध करना अर्थात् अन्य अर्थोकी चिन्ता या विचार छोड़कर एक ही अर्थका विचार करना ध्यान कहलाता है। ध्यानका विषय एक ही अर्थ होता है । जबतक चित्त में नाना प्रकारके पदार्थों के विचार आते रहेंगे तब तक वह ध्यान नहीं कहला सकता। अतः एकाग्रचिन्तानिरोधका ही नाम ध्यान है। ध्यानका काल अन्तर्मुहूर्त है । किसी एक अर्थ में बहुतकाल तक चित्त को लगाना अधिक कठिन है अतः अन्तर्मुहूर्त के बाद एकाग्रचिन्तानिरोध नहीं हो सकता । यदि अन्तर्मुहूर्त के लिये निश्चल रूपसे. एकाग्रचिन्तानिरोध हो जाय तो सर्व कर्मोंका क्षय शीघ्र हो जाता है ।
प्रश्न-चिन्ताके निरोध करनेको ध्यान कहा गया है और निरोध अभावको कहते हैं। यदि एक अर्थ में चिन्ताका अभाव (एकाग्र चिन्ता निरोध) ध्यान है तो ध्यान गगनकुसुमकी तरह असत् हो जायगा।
उत्तर ----ध्यान सत् भी है और असत् भी है। ध्यानमें केवल एक ही अर्थकी चिन्ता रहती है अतः ध्यान सत् है तथा अन्य अर्थोकी चिन्ता नहीं रहती है अतः ध्यान असत् भी है। अथवा निरोध शब्दका अर्थ अभाव नहीं करेंगे। जब निरोध शब्द भाववाचक होता है तब उसका अर्थ अभाव होता है और जब कर्मवाचक होता है तब उसका अर्थ होता है वह वस्तु जो निरुद्धकी गई (रोकी गई) हो। अतः इस अर्थमें एक अर्थमें अविचल ज्ञानका नाम ही ध्यान होगा। निश्चल दीपशिखाकी तरह निस्तरङ्ग ज्ञानको ही ध्यान कहते हैं।
तीन उत्तम संहननों में से प्रथम संहननसे ही मुक्ति होती है। अन्य दो संहननोंसे ध्यान तो होता है किन्तु मुक्ति नहीं होती है।
ध्यानके भेद
आर्गरौद्रधर्म्यशुक्लानि ॥ २८ ॥ आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्म्यध्यान और शुक्लध्यान ये ध्यानके चार भेद हैं।
दुःखावस्थाको प्राप्त जीवका जो ध्यान (चिन्ता) है उसको आर्तध्यान कहते हैं। रुद्र (क्रूर) प्राणी द्वारा किया गया कार्य अथवा विचार रौद्रध्यान है। वस्तुके स्वरूपमें चित्तको लगाना धर्म्यध्यान है । जीवोंके शुद्ध परिणामोंसे जो ध्यान किया जाता है वह शुक्लध्यान है। ___ प्रथम दो ध्यान पापास्रवके कारण होनेसे अप्रशस्त ध्यान कहलाते है और कर्ममलको नष्ट करने में समर्थ होने के कारण धर्म्य और शुक्ल ध्यान प्रशस्त ध्यान कहलाते हैं।
परे मोक्ष हेतू ॥ २९ ॥ इनमें धर्म्य और शुम्ल ध्यान मोक्षके कारण हैं। धर्म्यध्यान परम्पराने मोक्षका
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