________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
४९२ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार
[ ९।१८ और उष्ण इन दो परीषहोंमें से एक कालमें एक ही परीषह होगा तथा चर्या, शय्या और निषद्या इन तीन परीषहोंमें से एक कालमें एक ही परीषह होगा। इस प्रकार बाईस परीषहों में से तीन परीषह घट जाने पर एक साथ उन्नीस परीषह ही हो सकते हैं, अधिक नहीं।
प्रश्न-प्रज्ञा और अज्ञान परीषहमें परस्पर में विरोध है अतः ये दोनों परीषह एक साथ कैसे होंगे ?
उत्तर-श्रतज्ञानके होनेपर प्रज्ञापरीषह होता है और अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञानके अभावमें अज्ञान परीषह होता है अतः ये दोनों परीषह एक साथ हो सकते हैं।
चारित्रका वर्णनसामायिकछेदोपस्थापनापरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसाम्पराययथाख्यातमिति
चारित्रम् ॥ १८॥ सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात ये पाँच चारित्र हैं। सूत्रमें 'इति' शब्द समाप्तिवाचक है जिसका अर्थ है कि यथाख्यात चारित्रसे कर्मोंका पूर्ण क्षय होता है । दश प्रकारके धर्मों में जो संयमधर्म बतलाया गया है वह चारित्र ही है लेकिन पुनः यहाँ चारित्रका वर्णन इस बातको बतलाता है कि चारित्र निर्वाणका साक्षात् कारण है।
- सम्पूर्ण पापोंके त्याग करनेको सामायिक चारित्र कहते है । इसके दो भेद है-परिमित काल सामायिक और अपरिमितकाल सामायिक । स्वाध्याय आदि करनेमें परिमितकाल सामायिक होता है और ईर्यापथ आदिमें अपरिमितकाल सामायिक होता है।
प्रमादके वशसे अहिंसा आदि व्रतोंमें दूषण लग जाने पर आगमोक्त विधिसे उस दोषका प्रायश्चित्त करके पुनः व्रतोंका ग्रहण करना 'छेदोपस्थापना चारित्र है। व्रतोंमें दोष लग जाने पर पक्ष, मास आदिकी दीक्षाका छेद (नाश) करके पुनः व्रतोंमें स्थापना करना अथवा सङ्कल्प और विकल्पोंका त्याग करना भी छेदोपस्थापना चारित्र है।
जिस चारित्रमें जीवोंकी हिंसाका त्याग होनेसे विशेष शुद्धि (कर्ममलका नाश) हो उसको परिहारविशुद्धि चारित्र कहते हैं। जिस मुनिकी आयु बत्तीस वर्षकी हो, जो बहुत काल तक तीर्थकरके चरणों में रह चुका हो, प्रत्याख्यान नामक नवम पूर्वमें कहे गये सम्यक आचारका जानने वाला हो, प्रमाद रहित हो और तीनों सन्ध्याओं को छोड़कर केवल दो गव्यूति (चार मील) गमन करने वाला हो उस मुनिके परिहारविशुद्धि चारित्र होता है । तीर्थकरके पादमूलमें रहनेका काल वर्षपृथक्त्व ( तीन वर्षसे अधिक और नौ वर्षसे कम ) है।
जिस चारित्रमें अति सूक्ष्म लोभ कषायका उदय रहता है उसको सूक्ष्मसाम्पराय चारित्र कहते हैं।
सम्पूर्ण मोहनीयके उपशम या क्षय होने पर आत्माके अपने स्वरूपमें स्थिर होनेको यथाख्यात चारित्र कहते हैं। यथाख्यातका अर्थ है कि आत्माके स्वरूपको जैसा का तैसा कहना । यथाख्यातका दूसरा नाम अथाख्यात भी है जिसका अर्थ है कि इस प्रकारके उत्कृष्ट चारित्रको जीवने पहिले प्राप्त नहीं किया था और मोहके क्षय या उपशम हो जाने पर प्राप्त किया है। सामायिक आदि चारित्रोंमें उत्तरोत्तर गुणोंकी उत्कृष्टता होनेसे इनका क्रम से वर्णन किया गया है।
For Private And Personal Use Only