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४६६ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार
। ८२ विरतियुक्त अविरति तथा प्रमाद, कषाय और योग बन्धके हेतु हैं । प्रमत्तसंयतके प्रमाद, कषाय और योग ये तीन बन्धके हेतु हैं । अप्रमत्त, अपूर्वकरण, बादरसाम्पराय और सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानोंमें कषाय और योग ये दो ही बन्धके कारण हैं। उपशान्तकषाय; क्षीणकषाय और सयोगकेवली गुणस्थानों में केवल योग ही बन्धका हेतु है। अयोगकेवली गुणस्थानमें बन्ध नहीं होता है।
. बन्धका स्वरूपसकषायत्वाज्जीव : कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बन्धः ॥२॥
कषायसहित होने के कारण जीव जो कर्मके योग्य ( कार्माणवर्गणा रूप) पुद्गल परमाणुओंको ग्रहण करता है वह बन्ध है ।
कषायका ग्रहण पहिले सूत्रमें हो चुका है। इस सूत्रमें पुनः कषायका ग्रहण यह सूचित करता है कि तीव्र, मन्द और मध्यम कषायके भेदसे स्थितिबन्ध और अनुभाग बन्ध भी तीव्र,मन्द और मध्यमरूप होता है।
प्रश्न-बन्ध जीवके ही होता है अतः सूत्र में जीव शब्दका ग्रहण व्यर्थ है। अथवा जीव अमूर्तीक है, हाथ पैर रहित है, वह कर्मोको कैसे ग्रहण करेगा ?
उत्तर-जो जीता हो या प्राण सहित हो वह जीव है इस अर्थको बतलानेके लिये जीव शब्दका ग्रहण किया गया है । तात्पर्य यह है कि आयुप्राणसहित जीव ही कमको ग्रहण करता है। आयुसबन्धके बिना जीव अनाहारक हो जाता है अतः विग्रहगतिमें एक, दो या तीन समय तक जीव कर्म ( नोकर्म ?) का ग्रहण नहीं करता है।
प्रश्न-'कर्मयोग्यान्' इस प्रकारका लघुनिर्देश ही करना चाहिये था 'कर्मणो योग्यान्' इस प्रकार पृथक् विभक्तिनिर्देश क्यों किया ?
उत्तर-कर्म ो योग्यान'इस प्रकार पृथक् विभक्तिनिर्देश दो वाक्योंको सूचित करता है। एक वाक्य है-कर्मणो जीवः सकषायो भवति और दुसरा वाक्य है कर्मणो योग्यान । प्रथम वाक्यका अर्थ है कि जीव कर्मके कारण ही सकषाय होता है। कर्म रहित जीवके कषायका सम्बन्ध नहीं हो सकता । इससे जीव और कर्मका अनादि सम्बन्ध सिद्ध होता है । तथा इस शंकाका भी निराकरण हो जाता है कि अमूर्तीक जीव मूर्त कोको कसे ग्रह्ण करता है। यदि जीव और कर्मका सम्बन्ध सादि हो तो सम्बन्धके पहिले जीवको अत्यन्त निर्मल होने के कारण सिद्धोंकी तरह बन्ध नहीं हो सकेगा । अतः कर्म सहित जीव ही कमबन्ध करता है, कर्मरहित नहीं। दूसरे वाक्यका अर्थ है कि जीव कर्मके योग्य ( कार्माणवर्गणारूप ) पुद्गलोंको ही ग्रहण करता है अन्य पुद्गलोंको नहीं । पहिले वाक्यमें 'कर्मणो' पञ्चमी विभक्ति है और दूसरे वाक्यमें षष्ठी विभक्ति । यहाँ अर्थके वशसे विभक्ति में भेद हो जाता है।
सूत्रमें पुद्गल शब्दका ग्रहण यह बतलाता है कि कर्मकी पुद्गलके साथ और पुद्गल की कर्मके साथ तन्मयता है। कर्म आत्माका गुण नहीं है क्योंकि आत्माका गुण संसारका कारण नहीं हो सकता। - 'आदत्ते' यह क्रिया वचन हेतुहेतुमद्भावको बतलाता है। मिथ्यादर्शन आदि बन्धके हेतु हैं और बन्धसहित आत्मा हेतुमान है। मिथ्यादर्शन आदि के द्वारा सूक्ष्म अनन्तानन्त पुद्गल परमाणुओंका आत्माके प्रदेशों के साथ जल और दूधकी तरह मिल जाना बन्ध है। केवल संयोग या सम्बन्धका नाम बन्ध नहीं है। जैसे एक बर्तनमें रखे हुए नाना प्रकारके
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